“मिट्टी की सौगंध”

“मिट्टी की सौगंध”

मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है। (किन्तु) माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है।
मेरी मातृभूमि अनेकता में एकता के नारे में समां विश्वविख्यात हुई हैं।
अब नये दौर में इस मिट्टी की पहचान पुरानी प्रथा के साथ नवीन उत्थान लिए नवीनतम नवीकरण का नये दौर का स्वागत करती आ नयी मिट्टी …

मिट्टी की सौगंध, वो सौगात सुनहरी होगी ।
हीरे मोती सी पहचान, वो प्रभात सुनहरी होगी।।

सौगंध इस मिट्टी की मिट्टी को मस्तिष्क पर तिलक लगा मेरी धड़कती धड़कन को यह आभास और आवाज दे कर आदेश देता हूं कि तेरी आत्मा में उमड़ने वाली यह परम परमात्मा का परिचय मां धरती ही है जिस पर जन्म लिया वो धरती सदा सुखी और समृद्ध रहें।
मिट्टी मातृभूमि भारत माता जिसके कण कण मेरे रगों में दौड़ते हुए साहस भरते हैं और कहते है कवि बंकिमचंद्र चटर्जी के वो अमूल्य शब्दकोश के अतुलनीय शब्द ….
वन्देमातरम् ।
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणा:शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडि मन मन्दिरे मातरम्।

मातृभूमि पर पैदा होकर अपना जीवन सिर्फ मनोरंजन या मनगढ़ंत बातों में ही व्यतीत करते हैं तो जन्म जन्म नहीं जन्मांतर तक एक प्रश्न पर प्रश्नवाचक अपनी निगाहों में अपने प्रश्न का उत्तर देने के लिए प्रशंसको से प्रशिक्षण की प्रतीक्षा में प्रतिदिन प्रतिक्रिया का इंतजाम और इंतजार करना पड़ेगा।
इस धरती पर पैदा होकर अगर हम इस धरती पर बोझ बन बैठे रहे फिर तो संस्कृत भाषा का वो श्लोक याद आता है

साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः । तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥

मेरी मातृभूमि के मिट्टी की महक तो मैंने एक छोटी सी कविता की इन पंक्तियों में देखी…

इस मिट्टी में पैदा होना बड़े गर्व की बात है ।
साहस और वीरता अपने पुरखों की सौगात है।।

हम कितने भाग्यशाली हैं कि जो इस गौरवशाली अतीत विरासत के भाग्य में जन्म लेकर अपने आप को खुशनसीब समझ रहे, यह हर किसी के भाग्य में नहीं होता है इस मिट्टी का कण कण पावन है जिसमें कवि प्रदीप की इन पंक्तियां को यादकर दिल गदगद हो जाता है।
उत्तर में रखवाली करता पर्वतराज विराट है
दक्षिण में चरणों को धोता सागर का सम्राट है
जमुना जी के तट को देखो गंगा का ये घाट है
बाट-बाट में हाट-हाट में यहाँ निराला ठाठ है
देखो ये तस्वीरें अपने गौरव की अभिमान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती हैं बलिदान की
वंदे मातरम, वंदे मातरम

मुझे मेरी इस मातृभूमि की मिट्टी की मिसाल कायम रखने का जज्बा मैथिलीशरण गुप्त जी की इन पंक्तियों से मिलता है….
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।

महेंद्र कपूर द्वारा रचित वो गीत जिसके बोल
मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती
मेरे देश की धरती…
मेरी इस पावन प्रवित्र प्रकाशमय धरती का ज्ञान कोष अनंत अपार है जो अखंड, संप्रभुता संपन्न, कण कण में करिश्माई करतब, धन धान्य से परिपूर्ण, वीर वीरांगनाओं की जननी अथाह प्रेम से परिपूर्ण प्रभावित करती इस मातृभूमि की मिट्टी को मेरा सतत् प्रणाम और बंकिमचंद्र चटर्जी की इन पंक्तियों से पुनः मातृभूमि को नमस्कार करता हूं।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलां सुजलां सुफलां मातरम् ।।

अरविंद अप्रेंटिस
सांचौर (राजस्थान)

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