महादेव मुंडा की कहानी – मैं अमरूद का पेड़ हूँ

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तब हम काफ़ी छोटे थे। उस लंबी-चौड़ी, दूर तक फैली खिलखिलाती हरियाली से भरी नर्सरी में मेरा जन्म हुआ था। उस समय हमारी अवस्था मात्र एक शिशु पौधे की थी। उस सुंदर से आहाते में मेरे जैसे कई मित्र थे—आम, जामुन, नाशपाती, खजूर, अनार, शरीफा, लीची, काजू आदि। हम अलग-अलग क्यारियों में सजे होते। हवा के झोंकों और सूर्य की रोशनी से मदमस्त होकर हम लहराते रहते।
वह आहाता न केवल हम जैसे फलों के पौधों से भरा था, बल्कि कई प्रकार के रंग-बिरंगे सुंदर फूलों से भी सजा था—जूही, चमेली, चंपा, बेला आदि सभी वहाँ थे। जब भी लोग उस आहाते में आते, वे हमारे बीच से होकर आगे बढ़ जाते, लेकिन हमें बिना देखे। उनका ध्यान लीची, अनार, काजू

आदि की ओर चला जाता, शायद इसलिए कि वे हमसे अधिक सुंदर और कीमती माने जाते। हमारी पूछ औरों की अपेक्षा कम थी, शायद इस कारण से कि हम तो हर जगह आसानी से मिल जाते हैं। वे सभी बहुत सौभाग्यशाली थे। उनके पास लोगों की लंबी कतारें होतीं। हमें लगता कि हमारी कोई कद्र नहीं, कोई मूल्य नहीं। हम उपेक्षित होकर रह जाते। लेकिन हमें ईर्ष्या तनिक भी नहीं थी, क्योंकि आखिर वे हमारे मित्र ही तो थे! हम सब एक ही आहाते के साथी और पड़ोसी थे। हम सब एक समाज के रहने वालों की तरह थे।
कई दिनों बाद, जब हमने होश संभाला, तो हमें भी एहसास हुआ कि हमारा समय आ गया था। हम युवावस्था में आ रहे थे। जैसे-जैसे कोई भी बड़ा होता, उसका स्थान परिवर्तन हो जाता। वहाँ से उसकी विदाई हो जाती—कोई न कोई आकर उसे खरीद ले जाता। उपेक्षित मन से ही सही, हम भी नए कोमल पत्तों के साथ हरे-भरे होते गए। फिर भी, हम प्रसन्नचित्त और प्रफुल्लित रहते थे। नीम, तुत, कटहल आदि से तो हम कहीं अच्छे थे, क्योंकि उन्हें तो कोई जल्दी ले भी नहीं जाता था। इसी उच्च भावना और सकारात्मक सोच के कारण हम कभी मुरझाए नहीं। और यही कारण था कि समय आने पर हमें भी किसी के हाथों चुन लिया गया। हमारे भी दिन बदल गए। हमारी हर जाति के पौधों से यही विनती है कि वे कभी अपनी भावना को हीन न बनने दें। खुद को मजबूत बनाएँ। छुई-मुई इसी हीन भावना के कारण तो किसी के स्पर्श मात्र से सिकुड़ जाती है। आखिर, हम सभी एक ही प्रकृति की संतान हैं।
जब हमारा समय आया, तो हमें उस आहाते से अलग होना पड़ा। वहाँ के माली ने मात्र पाँच रुपये लेकर हमें विदा कर दिया। उस दिन जब हम वहाँ से अलग हुए, बाकी मित्रों का स्नेह और प्यार हमें रोक नहीं पाया। हम सोच रहे थे—”कहाँ जा रहे हैं हम? कैसा स्थल होगा?”
सारा दिन उदासी में बीता। जुदाई ने हमें मर्माहत कर दिया था। हमारा तन सूख गया था, पत्ते सिकुड़ गए थे।
होश तब आया जब तीन-चार दिन बीत गए। हमने खुद को एक सुनसान और उजड़े आँगन में पाया। न कोई आदर-सत्कार, न कोई सुख। हमें बहुत बुरा लगा। तब हमें एहसास हुआ कि दोस्त-मित्र कितने अपने होते हैं। इस सुनसान और वीरान जगह से तो हम उस आहाते में उपेक्षित होकर भी बेहतर थे। कम से कम वहाँ हमारे जैसे दूसरे पौधों का साथ तो था! हम एक-दूसरे को देख तो सकते थे। जहाँ हमें शरण मिली, वहाँ दूर-दूर तक हमारे जैसे कोई और नहीं था। हम अजनबी थे, अनजान थे। विरोधियों का हमेशा डर बना रहा। बस, वहाँ गेंदे के फूलों का एक बड़ा झुंड था। अपरिचित और अलग प्रजाति होने के कारण हमारी उनसे कभी कोई बात नहीं हुई।
बहुत दिनों तक हमें कोई सहारा नहीं मिला। हम यूँ ही पड़े रहे—सूखी ज़मीन पर गाड़ दिए गए, टेढ़े-मेढ़े होकर। शायद हम वर्षों तक अकेले ही पड़े रहे। अकेलापन हमें बहुत अखरता था। हम दुख की आँच में तपते और बिलखते रहते। हमारी आवाज़ इतनी क्षीण हो गई कि कोई हमें सुन भी नहीं सकता था। यहाँ तक कि हम दूसरों की नज़रों से भी ओझल हो गए। हमारे पास कोई उम्मीद नहीं थी कि हम बच पाएँगे। हमारे चारों ओर झाड़-झंखाड़ उग आए थे। लेकिन इस कठिन समय में भी हमने अपना साहस और आत्मविश्वास कभी नहीं खोया। हमें हर हाल में जीना था।
हमारी साँसें टूट-टूटकर चल रही थीं, फिर भी हम किसी तरह जीवित थे। हम बस एक ठूँठ बनकर खड़े रह गए थे। लेकिन हमारी आवाज़ फिर से उसी मालिक ने सुन ली, जिसने हमें लगाया था।
शायद बहुत दिनों बाद उसे हमारी सुध आई थी। उसने हमें झाड़ियों के ढेर से खोजकर निकाला। हम मात्र ठूँठ रह गए थे—मात्र एक फुट ऊँचाई बची थी। पर जैसे ही हमें माली का सान्निध्य मिला, हमारे अंदर फिर से जीवन लौट आया।
माली की लगातार एक सप्ताह की सेवा-सुश्रुषा से हमें जीने की एक नई आस मिल गई। हमें फिर से साफ़-सफाई कर सुरक्षित रखा गया। ताकि कोई जानवर हमें नुकसान न पहुँचा सके, हमारे चारों ओर घेरा बनाया गया। धीरे-धीरे हमारी खोई हुई ख़ुशी और ऊर्जा लौट आई। छह महीनों में हम फिर से हरे-भरे हो गए। हमारी ऊँचाई चार फीट तक पहुँच गई। सुंदर सजीले पत्तों के साथ अनगिनत शाखाएँ फैल गईं। हमारी वृद्धि तेज़ी से होती रही।
फिर एक दिन मालिक की ज़ोरदार खुशी भरी आवाज़ हवा में गूँज गई। हमारे पास आकर वह हमें कोमल हाथों से निहारने लगा। हमने देखा कि वह हमारे फूलों को देखकर बहुत प्रसन्न था!

हमें तब तक पता नहीं था कि हम यौवनावस्था में पहुँच चुके थे। फूलों का खिलना हमारे जीवन की एक नई शुरुआत थी। हमें गर्व होने लगा कि अब हम भी फल देंगे। हमारी पूछ बढ़ेगी। मालिक ने हमारे चारों ओर सुरक्षा व्यवस्था की। बांस का ऊँचा घेरा बनाया गया। अब वीरान आँगन सँवरने लगा। हम उस आँगन के प्रमुख बन गए। हमारी राजाओं जैसी पूछ होने लगी। फिर… फिर तो हमारे दिन ही बदल गए! हम पर फूल खिले, फल लगे, और जब हमारी टहनियाँ फलों के भार से झुकने लगीं, तो हमें अपार संतोष मिला।
लोग हमें ललचाई नज़रों से देखने लगे। हम सम्मान पाने लगे। साल में दो बार फल देने लगे। हर आने-जाने वाला हमारे फल खाता और हमारी प्रशंसा करता। यह देख हमें अपार सुख की अनुभूति होती थी।
चार साल बाद पता चला कि उस आहाते में हमारे मित्र नहीं रहे। शायद वह आहाता उजड़ गया था। समय से पहले उनकी ज़िंदगियाँ ख़त्म हो गई थीं। यह जानकर हमें बहुत दुःख हुआ।
तब हमने संकल्प लिया कि हम जीवन भर लोगों को मीठे फल देते रहेंगे। जाने कितने भूखे बच्चों और बुज़ुर्गों को हमने तृप्त किया।
आज मेरा कोई अपना नहीं, पर मुझे गर्व है कि मैं लोगों के साथ हूँ। बच्चे मेरी शाखाओं पर झूलते हैं, मेरे फल खाते हैं। मैं अब वृद्ध हो चला हूँ, पर आज भी खड़ा हूँ…

पता- ग्राम+पोस्ट-चकमें, थाना-बुड़मू, जिला-रांची, झारखंड, पिन कोड- 835214

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