बाज़ार

अपने दोस्तों के साथ अवश्य साझा करें।

बाज़ार हमें खरीदता है
या हम बाज़ार को!
राहगीर भी भटकने लगे
चकाचौंध को देख कर
अब आदमी की नीलामी
होती है बेधड़क
जिस्म भी चंद पैसों में
बिकने लगे हैं
बाज़ार भी आदमी की देन है
फिर आदमी ही आदमी को
बेचने लगे
गाँव को मिटा कर
शहर में तब्दील किया
अब घरों को उजाड़ कर
रिश्तों के कोठे बनने लगे हैं
बिन पिये राह जाता नहीं
अब शामे दस्तकें होने लगी
आदमी अब आदमी
न रहा
बाज़ार के शो केस बनने लगे
गुम गई खुशियाँ घरों से
अब पैसों से रिश्ते बढ़ने लगे
गुमनाम हो गई जिन्दगी
अब बाज़ार भी
आदमी को खरीदने लगे..

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Shopping Cart
Scroll to Top