ग़ज़लें
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-डा. ज़ियाउर रहमान जाफ़री
( 1)
तुम्हारे सब गिले अच्छे नहीं हैं
मुकम्मल तज़किरे अच्छे नहीं हैं
बता कर सब हक़ीक़त रख रहे हैं
कहीं से आईने अच्छे नहीं हैं
शिकायत मुझसे ही होती रही है
मगर वो भी बड़े अच्छे नहीं हैं
अंधेरों की रही है बस शिकायत
जो जलते हैं दिये अच्छे नहीं हैं
दिलों में नफरतें महफूज करके
जो मिलते हैं गले अच्छे नहीं हैं
अभी नासाज़ है तबीयत हमारी
अभी ये तज़किरे अच्छे नहीं हैं
ग़ज़ल में नाम मेरा भी रहा है
तुम्हारे तबसिरे अच्छे नहीं हैं
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(2)
जिसे चाहा वहीं धोखा हुआ है
तुम्हारे साथ भी ऐसा हुआ है
चले आएंगे हम इक दिन भटककर
तुम्हारा गांव तो देखा हुआ है
वही इक बार आकर फिर से माफ़ी
तुम्हारा हर सितम समझा हुआ है
तुम्हें है नाज़ जितना सल्तनत का
मेरा उतना वहां छोड़ा हुआ है
ये मत भूलो हमारे वोट से ही
तेरा इतना बड़ा रुतबा हुआ है
तुम्हारे पांव में डाला है पायल
ये मेरे इश्क़ का सदका हुआ है
ज़रा सी हो गई तारों से अनबन
हमारा चाँद भी रूठा हुआ है
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(3)
ये क्यों बड़ों का ख्याल करना
जहां हो मुमकिन सवाल करना
हुकूमतों की रविश रही है
हराम कहना हलाल करना
अगर कभी जो दिखाओ दर्पण
वहीं से उसका बबाल करना
जो हैं लफंगे व चोर डाकू
सभा में सब को बहाल करना
उखाड़ देंगे ये वक्त इक दिन
अगर न सीखा अमाल करना
न छोडी हमने कभी न खूं से
तेरे लबों का गुलाल करना
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(4)
नयी इस रुत का मंज़र बोलता है
जिसे रोका वो बढ़कर बोलता है
जरूरत पर सिमट कर रह गया जो
उसे ये वक्त कायर बोलता है
उसी बस्ती से में आया हुआ हूं
जहां फूलों से पत्थर बोलता है
सियासत इस तरह की चल रही है
कोई भी अब सिमटकर बोलता है
नदी भी कह रही थी देखते हैं
कहां कब तक समंदर बोलता है
वो अब तक हाशिए पर क्यों रहे हैं
किताबों का न अक्षर बोलता है
बचा है आसमां उड़ने को अब भी
खुला चिड़ियों का ये पर बोलता है
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(5)
गुलाब बेच के खुशबू की बात करते हुये
नज़र उदास थी आंसू की बात करते हुए
उसे पता था कबूतर कहां पे रक्खा है
जिसे उड़ा गया जादू की बात करते हुये
ज़ुबां के पास तक उसकी मिठास आ ही गयी
ललक जो बढ़ गई लड्डू की बात करते हुये
ये दोनों मिल के किसी ईंट से लिपटते थे
सीमेंट रो गया बालू की बात करते हुये
मैं इस ज़मीं पे कोई चाँद देख आया था
वो शाम मिल गये पल्लू की बात करते हुए
फिर उसके बाद हर इक बात पर वो हाँ बोला
किसी से सुन गया झाड़ू की बात करते हुए
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( 6)
वो इक वक़्त था सूरज से मेरा नाता था
मैं छुपके चांद से से मिलने फ़लक पे आता था
फिर ये हुआ कि ताल्लुक भी उनसे रह न सका
वो बेवफा था मेरे ग़म पे मुस्कुराता था
कभी रही नहीं ख्वाहिश भी उसको मिलने की
वो रोज़ कोई बहाने नया बनाता था
कभी भी उसने जो मुझसे जफ़ायें कीं तो फिर
ये सच है बाग़ का इक फूल टूट जाता था
किसे ख़बर थी वही चीज़ लूट लेगा मेरी
वो सारी रात हमें नींद से जगाता था
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(7)
उससे शिकवा ना बदजुबानी है
अब तो ये शख्स खानदानी है
हममें उतने भी अब हुनर हैं नहीं
एक मुट्ठी में जितना पानी है
उसका दिल तोड़ना जरूरी है
मुझको ये शै भी आज़मानी है
हक तो यों भी मिला है औरत को
एक राजा की कितनी रानी है
उससे एक बार मिल अगर हम लें
मुझको कुछ बात भी उठानी है
हुस्न के साथ इश्क रक्खा गया
ये ग़ज़ल की रविश पुरानी है
अपना आंगन बहुत बड़ा है मियां
मुझको दीवार एक उठानी है
मौत ही मुस्तक़िल है सच साहब
जिंदगी क्या है आनी -जानी है
अजीब दिन थे थे मुहब्बत भी मिल रही थी मुझे
वो मेरे साथ हर इक रात जाग जाता था
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(8)
देता है
…..
तमाम मामले ग़ैरों पे डाल देता है
वो बार बार सलीके से टाल देता है
खुदा भी देता है मुझको सज़ा गुनाहों की
मेरा नसीब भी सिक्का उछाल देता है
कभी समझ ही न पाया मैं अपने हाकिम को
ज़रा सी बात पे कितने सवाल देता है
तमाम मेरी मुहब्बत को भूल जाता है
वो एक लहजे पे दिल से निकाल देता है
न कुछ हुआ है हमारी किसी भी कोशिश से
वो जिसको चाहे उरूजो ज़वाल देता है
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(9)
बड़े -बड़ों की ये हस्ती उतार देती है
ग़रीबी बाप की पगड़ी उतार देती है
मैं अपने दिल को बड़ा बेकरार पाता हूं
वो जब भी हाथ की चूड़ी उतार देती है
कभी अदा, कभी जलवे कभी रिझाते हुए
ये ऐसा क़र्ज़ है लड़की उतार देती है
अमीरी फिरती है मोटा बदन बनाए हुए
ग़रीबी जिस्म की चमड़ी उतार देती है
किया जो प्यार तो नस्लें भी देख लीं मैंने
ये दुनिया जिस्म की हड्डी उतार देती है
ज़रा करीब मेरे पास और आते हुए
वो अपने हाथ की मेंहदी उतार देती है
बड़े बुज़ुर्गों की ये बात सच सी लगती है
बहुत हो खांसी तो हल्दी उतार देती है
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(10)
वो रोज़ मुझको नई बात ही बताता है
उदास रहने को अपनी ख़ुशी बताता है
जो तुम निकलना तो होशो हवास भी रखना
यहां पे झूट हर इक आदमी बताता है
ज़रा सी बात पे ज़िंदा वो मार डाला गया
जिसे ये ये सारा जहां ख़ुदकुशी बताता है
यों आके पर्दे पे हल्की सी मुस्करा हट से
जो हादसा है उसे आलमी बताता है
तुम्हारे साथ जो गुमसुम बना सा रहता है
वो कितनी बात मुझे आज भी बताता है
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( प्राध्यापक हिंदी विभाग)
ग्राम /पोस्ट -माफ़ी, वाया -अस्थावां, ज़िला -नालंदा, बिहार 803107
9934847941,6205254255