दुर्दिन

दुर्दिन

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निर्मेष

” भाई जरा वो वाली साड़ी निकालना ” दुकानदार से यह कहते हुए जिग्नेश अन्य वस्तुओं की खरीद दारी में लग गया।
घर से मां का फोन आया था की ” जिगर बबुआ इस बार होली पर जरूर से आ जाओ , बहुत दिन होइ गवा तुमका देखे। हाँ मां उसे प्यार से जिगर ही कहती थी। बड़े मान – मनौव्वल के बाद बॉस ने उसकी छुट्टी मंजूर कर दी थी और वह सबके लिए खरीदारी में लग गया था। मां व भाभी के लिये साड़ी , बाबू व भैया के लिये कुरता व भतीजे के लिये बढ़िया पठानी सूट वह ले चुका था। तभी उसे बरखा की याद आ गयी , उसकी आँखों की चमक यह सोच कर बढ़ गयी की आखिर पांच वर्षों बाद उससे भी मिलेगा , उसके लिये भी कुछ कायदे का लेने को सोच रहा था पर निर्णय नहीं कर पा रहा था। अभी बरखा कैसी होगी कितनी बड़ी हो गयी होगी , वैसे ही दुबली पतली होगी या थोड़ा देह भर गया होगा , भरने पर वह वास्तव में बहुत अच्छी लग रही होगी। अच्छी तो थी ही ; सोचते उसके मन में गुदगुदी होने लगी। आखिर में उसकी देहयष्टि का अनुमान लगाते हुए उसने एक जींस व पैंट उसके लिये ले लिया।
बरखा उसके साथ कस्बे के स्कूल में पढ़ती थी और लगभग नित्य गावँ के बाहर दोनों मिलते और जिग्नेश की साइकिल से स्कूल तक जाते और वापसी भी वैसे ही करते थे । ये आवाजाही कब करीबी और प्यार में बदल गया पता ही नहीं चला। इसी बीच चाचा के बुलावे पर जिग्नेश को मुंबई कमाने के लिये भेज दिया गया। वहां वह एक कपड़े की मिल में लग गया था। अपनी लगन व मेहनत से शीघ्र असिस्टेंट से सुपरवाइजर तक पहुँच गया। बिना नागा एक निश्चित रकम घर वह भेजने लगा था। घर की माली हालत भी धीरे -धीरे ठीक होने लगी थी। प्रारम्भ में बरखा के कॉल कभी-कभी आते थे कालांतर में बंद हो गये जो गवई माहौल में सामान्य बात थी। जिग्नेश मन ही मन उससे मिलने और आगे की रणनीति के बारे में अक्सर सोचता रहता और खूब मन लगाकर काम करता रहा।
खरीद दारी पूरी करके वह जल्दी अपने ठिकाने लौटा और गांव जाने की तैयारी में लग गया। पैकिंग का काम विधिवत पूरा करके वह निश्चिन्त सो गया। सुबह जल्दी उठा और तैयार होकर दादर स्टेशन के लिये निकल पड़ा। अचानक रास्ते में एक चूड़ियों की दुकान देख वह रुका कुछ नये डिज़ाइन की चूड़ियाँ बरखा के लिये और मां व भाभी के लिये लेकर वह पुनः स्टेशन रवाना हो गया। भीड़ थी पर रिज़र्वेशन होने से सीट मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई । शीघ्र ही अपनी सीट पर आराम से बैठ वह बरखा के साथ बिताये दिन व पुनः एक लम्बे अंतराल बाद मिलने की बात सोच करके रोमांचित हो उठा था। उस समय तो लड़कपन था पर अब उसे उन सब बातों को सोच सिहरन हो उठती थी। लम्बा रास्ता और लम्बा हो चला था। निकलने के पहले एक पत्र वह बरखा के नाम का अंदाज से डाल चुका था, जिसमे उससे वह वही गांव के बाहर जहाँ वे पहले मिलते रहे थे , निश्चित दिन आने का निवेदन किया था। बरखा के सभी सामान वह अलग एक नये बैग में पहले ही रख चुका था।
किसी तरह शाम हुए फिर रात के बाद सुबह हुई । बस दो स्टेशन बाद उसका गांव आने वाला था। जिग्नेश जल्दी से अपने आप को तैयार करके अपन बाल ठीक करने लगा। तभी गाड़ी रुकी , किसी ने कहा किसी दूसरी गाड़ी को पास देने के लिये रुकी है , थोड़ी देर में गाड़ी फिर चल देगी। जिग्नेश की बेचैनी को समझा जा सकता था। तभी जिग्नेश को प्यास महसूस हुआ वह एक पानी की बोतल लेने के लिये उसी स्टेशन पर उतरा। प्लेटफॉर्म पर उतर कर एक दुकान पर पानी की बोतल लेने लगा तभी उसकी नजर एक भीख मांगती लड़की पर पड़ी जो उसे बरखा होने का अहसास दे रही थी। फिर उसे लगा नहीं बरखा यहाँ कैसे हो सकती है। वह पानी लेकर आगे बढ़ा फिर कुछ सोच कर पुनः पीछे आया, वह लड़की भी उसे देखे जा रही थी। दोनों एक अनजान रिश्ते के आकर्षण वश एक दूसरे के धीरे-धीरे करीब आते गये। एकदम नजदीक आकर उस लड़की ने कहा-
” जिगर तुम ”
अब चौकने की बारी जिग्नेश की थी , क्योकि उसे इस नाम से या तो उसकी मां बुलाती थी या उसे चिढ़ाते हुए बरखा।
” अरे बरखा ये क्या हाल बना रखा है और ये तुम यह क्या कर रही हो ? ”
” कुछ नहीं जिगर , तुम्हारे जाने के बाद मां भी चल बसी , बापू बहुत पहले ही चले गये थे। अंत में भैया भाभी ने मुझे बोझ समझ कर घर से निकाल दिया। अब यही स्टेशन बस मेरा बसेरा और भीख मेरी रोजी-रोटी, दिन ऐसे ही काट रही हूँ।
” बस अब और नहीं बरखा ” – दोनों के आँखों से आंसू अविरल चल पड़े , और दोनों के बीच की जमीन पर गिर कर जब्त होते गये,,,,,,,,दे रहे थे एक सन्देश की बरखा अब तेरे दुर्दिन समाप्त हो गये।

निर्मेष

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