कल्पनाओं का वृक्ष

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मन की भूमि पर अंकुरित हुआ एक नन्हा पौधा
कितना कोमल,कितना प्यार,कितना सुंदर है ये पौधा

जड़े गहरी, तना मजबूत, टहनियां झूल रही है मदमस्त सी
परिश्रम की बूंदों से हर क्षण बढ़ रहा है ये पौधा

एक दूजे को साथ लेकर बढ़ रही है टहनियां
पाकर प्रीत हवा का झोंका झूम रही है टहनियां

धीरे धीरे टहनियां ये खिल उठी कली और पुष्पों संग
जिम्मेदारियों का भार उठा भी
खिल रहा है वृक्ष का तना
जड़ों ने भी कर पकड़ मजबूत, अपना हर फर्ज निभाया

पुष्प, पत्तियों,फलों से भरी टहनियां
उसके नीचे राहगीरों का मेला
पक्षियों को लुभाता ये प्यारा विशालकाय स्वरूप वृक्ष का
मनोहर ये दृश्य जीवन का देख धरा भीं मुस्काती थी
मुझ पर है कितना प्यारा संसार बसा सोच इठलाती थी

कई ऋतुएं बीती सब संग संग चलते रहे
फल हो परिपक्व फिर टूट कर बिखरने लगे
फिर मौसम पतझड़ का आया पत्तियों ने भी साथ छोड़ा
टहनियां भी हुई मायूस और फिर सुख कर गिर गई

अब खड़ा था एक ठूँठ लेकर अपनी जड़ो को साथ
उजड़ गया था हर भरा वो विशालकाय वृक्ष कल्पनाओं का
कैसा था ये चक्र समय का ,या था कोई माया का चक्र
कैसे तन्हा है खड़ा आज वो तन्हा ठूँठ सा वृक्ष
जो कभी शान से इठलाता था
पाकर साथ टहनियों, पत्तियों,फलों, पक्षियों और राहगीरों का

कितना कटु सत्य है जीवन का ,कैसे बिखरता है वृक्ष कल्पनाओं का
कैसे रह जाता है तन्हा व्याकुल एक ठूँठ सा बुजुर्ग भी घर का

निरंजना डांगे

– मै लेखनी मेरे सपनो की
निरंजना डांगे
बैतूल मध्यप्रदेश

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