विद्यार्थी दो शब्दों विद्या तथा अर्थी के परस्पर मेल से बना है जिसका अर्थ होता है – ज्ञान अर्जन करने वाला। प्राचीन काल से ही यह बात चली आ रही है कि विद्यार्थी सदैव संकटों और अभावों में जीने वाला होता है। विद्यार्थी कम साधनों में ही अपने आपको निखार लेता है। ज्ञान अर्जन करने के लिए कभी भी पीछे नहीं हटता, वह संसार के किसी कोने में चला जाए, जल के अंदर डूब जाए, वायु में उड़े या कहीं भी परन्तु उसका कर्तव्य ही होता है ज्ञान अर्जन करना। ज्ञान अर्जन के मामले में वह कभी भी संतुष्ट नहीं रहता और होना भी नहीं चाहिए क्योंकि जिज्ञासु स्वभाव के कारण ही वह विद्यार्थी है परन्तु अभी वर्तमान का समय जो चल रहा है इस परिवेश में विद्यार्थी अपने लीक से हटकर अलग रास्ते में जा रहे हैं जहाँ प्राचीन काल में विद्यार्थी का जीवन सादा होता था विचार ऊँचा होता था बिल्कुल इसके विपरीत विद्यार्थी का जीवन शान शौकत, सजे धजे, टिप टॉप से भरा है और विचार पंकील तथा संकीर्ण। अभी विद्यार्थी केवल परीक्षा पास करने के लिए, अच्छे अंक लाने के लिए पढ़ रहे हैं ताकि जीवन में उसे अच्छी नौकरियां मिल जाए बाद बाकि उसका जीवन जैसा भी हो.. उसकी प्रवृति जैसी हो… इस कारण वह गहन अध्ययन न करके प्रश्नोत्तर के पीछे भाग रहे हैं बाकी जो समय बचता है मोबाइल में, फेसबुक ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि जैसे सोशल मीडिया में चिपके रहते हैं घंटों बातें करने की लत लगी है खाने पीने ने में व्यस्त जिस कारण उसका विचार संकीर्ण होता जा रहा है। उनके जीवन में रहन सहन और खान पान का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। हमारे ऋषि मुनि का मानना था कि जैसा रहेगा अन्न वैसा रहेगा मन आज भी यह चरितार्थ है आज विद्यार्थी केवल पोशाक से पहचाने जाते हैं बाद बाकी सोंच विचार व्यवहार सबमें परिवर्तन आ गया है अध्ययनशीलता से व्यसनता की ओर संलिप्त होते जा रहे हैं। विद्यार्थी जीवन संयमित होना चाहिए सादा जीवन उच्च विचार होना चाहिए परन्तु खान पान जैसे मांसाहार भोजन, पैकेट फ़ूड्स, पेय पदार्थों में अल्कोहल युक्त पेय पदार्थों आदि में गहरी रूचि है जाहिर है कि जैसा अनाज हमारे अंदर जाएगा विचार वैसा ही उपजेगा शरीर का विकास वैसा ही होगा। तामसी खान -पान के कारण ही विद्यार्थी का जीवन रजौगुण और तमोगुण से भर गया है आज इसलिए वे साहित्य अथवा धार्मिक ग्रंथों, विचारों को मज़ाक का विषय समझकर उससे दूर निकलते जा रहे हैं नतीजा हो रहा है कि विद्यार्थियों में संस्कार का अभाव हो रहा है ऐसे में संस्कृति की रक्षा कौन करेगा?लक्ष्यहीन होकर दर दर की ठोकरें ख़ाता फिर रहा है। क्रोध चिड़चिड़ापन का भाव आम बात हो गयी है अनुशासनहीन होते जा रहे हैं!जिस प्रकार शरीर में आत्मा का महत्व है ठीक उसी प्रकार विद्यार्थी जीवन में संस्कार व अनुशासन का महत्व है, खाली बोतल हमारा प्यास नहीं बुझा सकती ठीक उसी प्रकार बिना संस्कार और अनुशासन के विद्यार्थी कभी देश हित की भावना नहीं रख सकता..!और गति यही रही तो शायद यह विकराल रूप लेकर चारों तरफ कोलाहल मचा देगा। इसलिए हे आदर्श माता – पिता, शिक्षक गुरुजन अपने कर्तव्य का उचित निर्वहन कर भारत की महान आत्मा की रक्षा करें,देश को काल के गाल में जाने से रोकें.. आप बदलेंगे तभी युग बदलेगा।
-डॉ ब्रजेश बर्णवाल
( हिंदी आचार्य )
सरस्वती शिशु मंदिर उच्च विद्यालय, सरायकेला