प्रश्न एक अच्छा सा उठ गया है मन में

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हरेंद्र नाथ श्रीवास्तव

चलें फिर धूप में बहते हैं
गीत: “चलो फिर मुस्कुरा लें हम, चलें फिर धूप में बहते है )

(वरिष्ठ जीवन की सजीव प्रेरणा- जीवन जीते रहना )

चलो फिर मुस्कुरा लें हम, चलें फिर धूप में बहते हैं ।
अभी जीवन बचा है खूब, न थकते हैं और न थमते हैं।

धीरे चलें तो क्या,मगर मन में, हो उत्सव का उजास,
हर साँझ में हो स्वीकृति, और हर सुबह नई तलाश।
भूले-बिसरे पथ में भी, है अनुभव का एक प्रकाश,
ना डरें धुंध से अब हम, ना सिमटें किसी पल हो हताश।
जहाँ विश्वास पनपता है, वहीं पे द्वार सभी खुलते हैं
चलो फिर मुस्कुरा लें हम, चलें फिर धूप में बहते है ।

शब्द जो लगते भूल गए हैं ,वो भावों में फिर जागे हैं,
थकी हुई सी देह भी अपनी, स्वप्नों में हो कर भागे है।
हँसी हमारी बाँध ना पाए, कोई भी उम्र के कच्चे धागे हैं,
मौन से भी बहती है, मदिर मधुर जीवन की बहते धारे हैं ।
जहाँ मन खिल उठे क्षण में, वहीं ये साँसे कलकल करते हैं।
चलो फिर मुस्कुरा लें हम, चलें फिर धूप में बहते हैं ।

सीखा है जो जीवन ने, अब बाँटें वो जले अलाव,
सादा भोजन, सच्चे शब्द, और मीठे मीठे भाव।
थोड़ी शरारत रख लें हम, थोड़ी विनोद की ठाँव,
जो मन में आए कह डालें, ना ढोएं कोई घाव।
जहाँ खुलकर बहें धड़कन, वहाँ रहते संवरतें हैं ।
चलो फिर मुस्कुरा लें हम, चलें फिर धूप में बहते हैं।

ना रखना है भारी रिश्तों का, अब कोई बोझ या भार,
जो पास हैं, वो साथ चलें, जो दूर हों, सब सादर स्वीकार।
बीत गई जो बातें हैं या रातें हैं, वो भी रखें उपहार,
छाया भी है साथी पूरक, सिर्फ़ उजाला नहीं आधार।
जहाँ हर छाया मुस्का जाये ,वहीं पे जीवन चमकते हैं ।
चलो फिर मुस्कुरा लें हम, चलें फिर धूप में बहते है ।

न कोई और तृष्णा हो बाक़ी,न कोई नाम की चाह,
जो पाया है बस वही उसी में, अब जीवन की राह।
बुढ़ापे में भी बचपन सा, मन रखे अपनी आह उछाह ,
मौन से मिल जाये सब उत्तर -ना हो शब्दों की भी पनाह।
जहाँ मौन फ़िज़ा संगीत, वहाँ जीवन में महकते हैं।
चलो फिर मुस्कुरा लें हम, चलें फिर धूप में बहते हैं ।

हर पल जीने के लिए है, जो भी जोश है जीता चल,
अब इंतज़ार किसका क्यों है, हर पल में मय पीता चल।
हर साँस है उपहार कोई, हर दिन एक तराना है,
मृत्यु भी तो जीवन जैसा, एक और ठिकाना है।
जब आना हो आ जाएगी, ये उसका अफ़साना है,
अपना काम तो जीते जाना, हर क्षण अपना ज़माना है।
जहाँ समय भी मौन हो जाए, वहीं हम भी बहते हैं।
हवा चली है जीवन की, चलो उसी में बहते हैं।

हरेंद्र नाथ श्रीवास्तव

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