कविता – अश्रु रोके रुके नहीं
भू अम्बर भी शर्मसार हुआ ये कैसा हमलावार हुआ
बेजान शव रखा गोद में
अश्रु रोके रुके नहीं
छटपटा रहा तन मन जिसका अर्थ न कुछ रह जाता
मौन हो गई प्रकृति जिसकी कश्मीर जो कहलाता
उठो तुम बताओ सबको सुकून कैसे खो गया
हिंदू मुस्लिम के नाम पर कैसे इंसान बॅंट गया
लहू से सना शरीर देखकर हृदय क्यों नहीं दहल गया
बॅंटवारा तो तुमने किया ईश्वर की तो थे तुम सुंदर कृति
अपनी रचना पर अफसोस कर रही वो अदृश्य शक्ति
भू अम्बर भी शर्मसार हुआ ये कैसा हमलावार हुआ
खो दिए नन्ही जान ने अपने प्यारे हीरो को
घुट रही आत्मा जिसकी खोया अपने वीरों को
धरा संताप किसे सुनाए मुर्दा उसकी छाती पर
मूक धरा चीख पड़ी अन्तिम विदा की बात पर
भू अम्बर भी शर्मसार हुआ ये कैसा हमलावार हुआ
करुणा उर में लाकर अपनी बेजान शव को मुक्ति दो
बौद्धिक क्षमता को छोड़ो जन भावों को तुम मुक्ति दो
हो गया माहौल भयावह विश्वास किसे दिलाओगे
पर्यटन के इतिहास को कैसे झुठलाओगे
मानव जीव ऐसा हैं पाहन से पथ निकाल दे
शब्दों की ताकतों को आंको आतंक को मत विस्तार दो
बोल पड़ो, उठाओ लेखनी अक्षर को आयाम दो।

– किरण बैरवा