ग़ज़ल…
दिलों से आग नफ़रत की बुझाओ तुम
मग़र इन फ़ासलों को भी मिटाओ तुम
नहीं अल्फ़ाज़ कोई मिल रहा मुझको
लिखूं मैं क्या यहां कुछ तो बताओ तुम
मुहब्बत इश्क़ की ना बात करना तुम
कभी जब दास्तां दिल की सुनाओ तुम
मुसाफ़िर हैं सभी अनजान राहों के
किसी से भी नहीं यह दिल लगाओ तुम
खतायें सब भुला देंगे तुम्हारी हम
ख़ता कोई हमारी इक बताओ तुम
दिलों का खेल अच्छा खेलते हैं जो
कभी भी पास उनको ना बिठाओ तुम
ख़ुदा अपना जिसे भी मानते हो तुम
कभी एहसास उनको यह दिलाओ तुम