शिव की कलम से

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_तुम मत बदलना मेरे लिए_

कुछ- कुछ तुम
वैसी ही हो
जैसे ढलती शाम में
आकाश में
उमड़ते बादल
कुछ स्याह
कुछ रक्तिमा
कुछ कुछ नीली पीली
धूप लिए.

कुछ कुछ तुम
वैसी ही हो
जैसे मक्खन
कुछ घी
कुछ पिघला मोम
बस अब तक
नहीं जान पाया
एक क्राइटेरिया में
तुमको फिट करना.

जब जब लगता है
तुम ऐसी ही हो
बदला मिलता है
अगले ही पल
तुम्हारा रूप- प्रतिरूप,
भाव विचार व्यवहार
कह नहीं सकता
तुम कैसी हो.

कुछ कुछ तुम
वैसी ही हो
जैसे संगीत की ध्वनि
सा रे गा मा पा
पर नहीं पता होता
मुझको तुम्हारा ये
उतारव चढ़ाव
तुम में ध्वनियां हैं सभी
पर तुम लय में नहीं हो.

कुछ- कुछ तुम
वैसी ही हो
पर जैसी हो
जो हो
मेरी हो
मेरी हो
मेरी हो.

तुम मत बदलना
मेरे लिए
तुम जैसी हो
अच्छी हो
मैने चुना तुम्हें
तुम्हारे ही रूप में
तुम चाहे जैसी हो
कुछ कुछ ऐसी
कुछ वैसी
बस मेरी.

शिवदत्त डोंगरे खंडवा

यह रचना मौलिक हैं
शिवदत्त डोंगरे खंडवा

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