पसंद बहुत कुछ है मुझको
पर चाहिये कुछ नहीं
इश्क़ तो है मुझको उनसे
पर मैं जताता नहीं
मेरे इस दिल में अब क्या है
मेरे इस दिल में कौन है
यह भी जनता हूँ मैं मग़र
हाले दिल सुनाता नहीं
उस अजनबी से क्या है मेरा
वास्ता क्या है मेरा रिश्ता
आखिर कौन है वो फ़रिश्ता
जिसके बिन कुछ लुभाता नहीं
कोई मुझसे पूछे भी तो कह
देता हूँ मैं सबसे यह बात
किसी के दिये हुए ये ज़ख़्म
किसी को मैं दिखाता नहीं
कभी अपना कहते हो मुझे
कभी पराया कह देते हो
छोड़ दिया जिसे एक बार मैंने
उस राह मैं कभी जाता नहीं
चाहे वो कितना भी खास हो
चाहे वो कितना ही करीब हो
जो खुद ही रूठ जाता है
उसको कभी मैं मनाता नहीं
कोई कुछ भी कहे मुझको
मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
किसी को चाहकर भी मैं
कभी आजमाता नहीं
आखिर वही रास आता है
मुझे और मेरे इस दिल को
जो मेरी रूह मेरी अंतरात्मा
को कभी दुखाता नहीं
बे-वफ़ा कहता किसी को कोई
बे-दर्द कहता किसी को कोई
ज़ालिम कहता ज़माना भी मुझे
किये वादे ग़र मैं निभाता नहीं
मैं और मेरी तन्हाई अक़्सर यह
बातें करते रहते हैं एक दूजे से
तुम कभी मुझसे दूर जाते नहीं
मैं कभी तुमसे दूर जाता नहीं!!

~ रसाल सिंह ‘राही’