प्रज्ञा तिवारी की कहानी – आत्मनिर्भर

अपने दोस्तों के साथ अवश्य साझा करें।

कभी-कभी थोड़ी ऊंचाई पर पहुँच जाना भी व्यक्ति के लिए भयानक बन जाता है।जब व्यक्ति के व्यवहार में लोगों को प्रभावित करने के लिए कोई हुनर न हो।स्वयं के बल पर समाज के साथ चल पाना एक चुनौती भरा कार्य होता है।और जिस व्यक्ति के विचार में समाज को बदलने की क्षमता जाग्रत हो गई हो तो उस पर सामाजिक ग्रह दशा का प्रभाव उसे अचेतित बनाने का प्रयास करता रहता है।एक अकेले जीव को देखकर चील झपटते ही हैं,और यह उस पर निर्भर करता है कि वह कैसे बचकर निकल सकता है।यदि व्यक्ति के विचार मजबूत हैं और वह उन विचारों पर चलने की ताकत रखता है तो वह समाज को स्वयं के अनुसार परिवर्तित कर सकता है।उस पर समाज का कोई प्रभाव नही पड़ता बल्कि समाज पर उसका ही प्रभाव पड़ता है।

हल्की साँवली अस्त-व्यस्त मटमैले परिधान में लिपटी हुई,रक्तिम आँखो की बहती पीड़ा में कुछ बाल गालों पर चिपके हुए थे।नाक के नथुनों पर क्रोध की भंगिमा बनाये वह स्त्री,दुधमुँहे बच्चे को लिए रोती बिलखती शिकायतों का पिटारा लिए मेरे पास आई थी।औऱ बस यही कहे जा रही थी दीदी मेरी मदद कर दीजिये ।मैं बहुत ही कष्ट में हूँ।मैं एक विधवा स्त्री हूँ परिवार के लोगो से तंग होकर मैं जी नही पा रही हूँ।रोज-रोज के झगड़े मारपीट से मैं परेशान हो गई हूँ।
सुना है..आप महिला स्वयं सेविका हो। बड़े-बड़े राजनेताओं तक आपकी पहुँच हैं।वह स्त्री यह कहे जा रही थी कि मुझे याद आया मेरे बच्चे के स्कूल का समय हो गया मुझे उसे लेने स्कूल भी पहुँचना है और अभी मैं इस स्त्री को कैसे सुन सकती हूँ।मैंने मना किया अभी नही,तुम कल आना।आज समय नही है।अभी हमें एक महत्वपूर्ण कार्य करना है।वह स्त्री मेम साहब…मेम साहब… चिल्लाती ही रह गई पर मैं न मुड़ी।मैं जैसे ही अपने कार में बैठी वैसे ही उस महिला ने चिल्लाकर क्रोध में कहा-अरे जो औरत अपने ही पति की न हुई वह मेरी क्या होगी जो दूसरे के साथ घूमती-फिरती अपने ही सुख में खोई हो उसे दूसरे की सुध-बुध क्या होगी।समाज सेविका की मुहर लगने से कोई सच में समाज का सेवक थोड़ी न हो जाता।मैंने आश्चर्य से उसे एक नजर देखा पर पलट कर कोई जवाब न दिया।

मेरी आँखों में काले बादलों की तरह अतीत की कालिमा छा गई।अतीत स्मृतियों का वह दृश्य एक ही पल में भयानक आंधी बनकर सिर से पाँव तक हिला दिया था।खारे अश्रुओं में अंतर के चोट और भी उभरने लग गए।जो भर-भर कर ह्रदय का दर्द सींच रहे थे।अतीत की वेदना से आहत हुई मैं किसी तरह खुद को संभाल रही थी। और बच्चे को लेने स्कूल के गेट पर पहुँच गई थी।उसे लेकर मैं सीधे घर आ गई।
छः सात घण्टे का वक्त बीत चुका था पर दिमाग में वही सबकुछ चल रहा था।आज खुली खिड़कियों पर नजरें नही टिक रही थी।न ही हिलती हुई लताओं में हवाओं का एहसास हो रहा था।पहले से कहीं ज्यादा दीवारें सूनी-सूनी लग रही थी।वल्फ़ की रोशनी में आँखे चौधियाँ रही थी।जी चाहता था सारे कमरें में बस अंधेरा ही रहे मैं अंधेरो के सन्नाटे में स्वयं का सामना करती रहूँ।वक्त झूठा हो जाता है या आदमी।वक्त तो बीत जाता है और बीते हुए वक्त में आदमी अपना ही सामना नही कर पाता।क्योंकि तकलीफों को वह बढ़ाना नही चाहता।पर वह वक्त भी तो इस शरीर पर बीता था।फिर क्यूँ मैं अपने अतीत से सामना नही कर पा रही हूँ।अतीत के अधेड़बुन में उलझी हुई मैं बाएं हाथ को सिर पर रखे दाहिने हाथ से बेटे के उंगलियां पकड़े आधी रात खुद से बात-चीत करते बीत गई।तब बड़ा मुश्किल होता है अपने अतीत का सामना करना,जब जीवन थोड़े सही राह पर आ जाता है।बुरे वक्त की कालिमा दिल को दहला देने वाली होती है।मैंने अपने पति को तलाक कभी न दिया था बस उसकी बुरी आदतों से मुझे घृणा हो गई थी।मैं घर छोड़कर पिता के घर आ गई थी।शराब पीना,झूठ बोलना,शक करना उसकी आदत हो गई थी। कभी बात ही न बन पाई ऐसी कि हम दोनों एक साथ रहकर अच्छी जिंदगी जी सकें।जीवन में सब रुपये ही तो नही होते जिससे आदमी का जीवन सुखमय बन सके।रुपये कमाने का हुनर तो मैंने भी पढ़ लिखकर अर्जित किया था।पर जीवन ऊँचे बिल्डिंगों,महंगी गाड़ियों,मखमली बिस्तरों पर ही नही बीतता,बल्कि जीवन का असली सुख प्रेम और सम्मान में होता है।दूसरों की खुशी और अच्छे कर्म करने में होता है।जो मुझे उसके घर में नही मिला था।डर था बच्चे को कहीं गन्दी आदत न लग जाय इसलिए अपने दम पर रहने की ठान लिया था मैंने।मेरे पास रखे हुए सारे रुपये तो मैंने विकलांग बच्चों का आश्रम बनने में ही लगाया था।अब वह सरकारी हो गया था मैं वहाँ की प्रबंधक थी।इसके तहत कुछ बड़े लोगों से नेताओं से परिचय बने तो क्या बुरा हो गया।जिनसे मेरे सम्बन्ध सदैव नियंत्रित रहे।मुझे समाज की महिलाओं के लिए कुछ कार्य करने के लिए सुझा तो मैंने उस पर भी कार्य किया। पर इस तरह से कोई मुझ पर टिका टिप्पणी करे ये मुझे बर्दाश्त नही था।और यदि मेरे पति को अपने बच्चे और मुझसे प्रेम होता ही तो वो कभी यहाँ आये ही होते।फिर क्या फर्क पड़ता है समाज मेरे बारे में कुछ भी कहे।
मैं ऐसी औरतों की मदद नही करूँगी जो परेशान होकर भी दूसरों के विषय में गन्दी सोच रखती हों।
वन्दिता अतीत के दर्द में भी क्रोधग्नि हुई जल रही थी।आज उसे उन बेबस निर्बल महिलाओं पर दया नही आ रही थी बल्कि घृणा से मन कराह रहा था।अंधेरे के सन्नाटे में वह अपनी ही प्रतिछाया से लड़ रही थी।क्योंकि व्यक्ति जब भी परेशान होता है तो वह खुद से ही बातें करता है।एक अकेले व्यक्ति का मित्र उसका मन ही होता है।जिस प्रतिछाया से लड़कर वह पूरी रात बिता दी थी,औऱ अब वह सुबह की रोशनी में आराम से सो रही थी।
बच्चे ने झकझोर कर उठाया मम्मी उठो…. आपको आज आश्रम में नही जाना है क्या?
वन्दिता-नही मुझे कहीं नही जाना। आज तुम्हारी भी छुट्टी है न तुम भी इंजॉय करो मैं थोड़ी देर में उठती हूँ।
सूरज की तेज रोशनी आँख के अंधेरो को छीनने लगा था। अब अंधेरो ने आँखो का घर छोड़ दिया था।पूरी तरह जागृत हुआ यह शरीर भला कैसे सो सकता था।मैं उठकर उस खिड़की से बाहर की तरफ देख रही थी,कुछ बच्चे खेल- खेल रहे थे।उनमें से कोई बच्चा उस बच्ची को बोल रहा था, तू तो बड़ी घमंडी है तुझे कोई कुछ बोल दे तो तू खेल ही बिगाड़ देती है।ये तुझे आता ही नही कि तू लड़कर आगे बढ़ सके।वो बच्ची दौड़कर आते हुए बोली चल मैं खेल आगे बढ़ाती हूँ मैं नही जा रही।यह सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा।कि कभी किसी चीज से भागना नही चाहिए।जो काम शुरू किया है तो उसे आगे बढ़ाना चाहिए।व्यक्ति के पास विश्वास की हिम्मत न हो तो वह निराशा में जिंदगी खत्म कर देता है।जिसका प्रभाव दूसरों पर भी पड़ता है।
अब मैं एक नई ऊर्जा के साथ उठकर अपने काम को समेटने लगी थी।
घर के सारे काम-काज खत्म करके मैं अपने आश्रम की तरफ चल पड़ी थी।और पहुंचकर दाई माँ से पूछ रही थी कि माँ जी क्या कोई महिला आई थी।
दाई माँ सिर हिलाकर चली जाती हैं।मेरा मन उस स्त्री से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा था मैं टहलते हुए आश्रम के गार्डन में पहुंच गई और मेरा हाथ एक फूल के पौधे पर पड़ा जिसमें काटें थे।जो हांथो में चुभ गए। पीड़ा भी हुई और खुशी भी मिली क्योंकि उसमें बहुत सुंदर फूल भी थे।आखिर जीवन भी इतना ही सुंदर होता है और उसमें मुसीबतें भी बड़ी-बड़ी होती है।जो कभी व्यक्ति को कठिन संघर्ष से अनुभव कराती हुई जीने की राह दिखाती है।व्यक्ति को सचेत कर जीवन के दुःख-सुख से परिचय कराती हैं।तो कभी यही संघर्ष व्यक्ति के अनोखे जीवन में खुशियों की फुलझड़ी लगाती है।मैं गार्डन में घूमते हुए एक चबूतरे पर बैठकर कुछ मीठा अनुभव कर रही थी।जैसे जीवन को जीना मैंने अभी-अभी शुरू किया हो।प्रकृति बड़ी सुंदर दृश्य लेकर मन मस्तिष्क में एक कल्पनात्मक चित्र खींच रही थी।
मैं पेड़ की पत्तियों पर ठहरी हुई ओस की बूंदों को सरकर गिरते हुए देख रही थी तभी पीछे से आती हुई आवाज ने मुझे अपनी तरफ आकृष्ट किया।
मुड़कर देखा तो यह वही स्त्री थी जो कल आई थी।मैं चुपचाप खड़ी हो गई।हाँ बोलिये बहनजी… क्या बात है?
जी मेमसाब मैं कल की गलती के लिए माफी माँगती हूँ।कितनी विचित्र बात है कि कल जो महिला गाली देकर चली गई थी वह कितने अच्छे से बात कर रही थी।इसका एकमात्र कारण मेरे विचार का उसके प्रति सकारात्मक होना था।
वह बोल रही थी आप मेरी भी मदद कीजिये मेम साहब।रोज रोज घर के लोग हमें परेशान करते हैं काम करवाते हैं।पर कोई एक पैसे की मदद नही करता।मैं क्या करूँ?
मैंने पूछा घर कहाँ है तुम्हारा।
उसने कहा सड़क उस पार ही है घर उसका।
मैंने झट से कहा कि अब तुम्हें अपने लिए कोई काम करना चाहिए।जिसमें तुम्हारी आर्थिक तंगी दूर हो सके।तुम्हें किसी के भरोसे नही रहना चाहिए।
वह स्त्री तो मुझे देखती ही रह गई।और कुछ सोचते हुए बोल पड़ी…दुधमुँहे बच्चे को लेकर मैं काम कैसे करूँगी मेमसाहब।कौन देगा मुझे काम।
मैंने कहा बच्चे लेकर जाओ किसी के यहाँ कुछ भी करो,या फिर कोई छोटी मोटी दुकान खोलकर बैठो।कड़ी मेहनत तो करनी ही पड़ेगी नही तो हमेशा परेशान रहोगी।कुछ भी करो जो तुम कर सकती हो।तभी तुम जीवन में आगे बढ़ सकती हो।
वह स्त्री असन्तोष में सिर हिलाकर लौट गई।मैं सोचने लगी मैंने कुछ गलत तो नही कह दिया।
मैं दूसरे दिन सुबह ही उसके घर पहुँच गई,और बोल पड़ी क्या आपने कुछ सोचा।जी मेंम साहब मैं सिलाई का काम करूँगी।मुझे बहुत खुशी मिली कि अब यह अपने बारे में सोच रही है।अब तक तो दूसरे के बारे में सोच रही थी। फिर मैंने पूछा क्या तुम्हारे पास सिलाई मशीन है।
उसने कहा बगल वाली से माँगकर कुछ दिन कपड़े सिलूँगी फिर कुछ पैसे आएंगे तो मैं खरीद लूँगी।
ठीक है फिर मैं चलती हूँ कल दीपावली का त्यौहार भी है मुझे आश्रम में कुछ तैयारियां भी करवानी है।अगर तुम्हें कोई सहायता चाहिए तो बताना मैं मदद करूँगी।
जी मेमसाहब करती हुई वह मुस्कुरा रही थी।उसकी आँखों में सुकून के पल ठहरे हुए दिखे।
अगले दिन त्यौहार था मुझे सारे बच्चों को गिफ्ट देना था।मैंने उसके लिए भी एक गिफ्ट खरीद लिया था।शाम को दिए जलाने के बाद मैं उसके घर पहुँची। वह बड़ी खुशी से दिए जलाने में लगी थी मुझे देखकर दौड़ती हुई आई और खुश होकर मेरा अभिवादन करने लगी।मैंने उसे गिफ्ट को देते हुए कहा ये तुम्हारे लिए।वह पकड़ते हुए बोली मेम साहब यह तो बड़ा भारी है।
जब खोलकर देखी तो उसके आँखो में न जाने कितने दीपक मुझे जलते हुए नजर आये।वह खुशी से कुछ बोल न पा रही थी।दो हाथ जोड़े हुए वह धन्यवाद बोल रही थी।मैं उसके हाथों को पकड़कर बोल पड़ी अब तुम्हें किसी से कोई सहायता माँगने की जरूरत नही।
“आज से तुम आत्मनिर्भर हो।”

प्रज्ञा तिवारी

-प्रज्ञा तिवारी

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Shopping Cart
Scroll to Top