ग़ज़ल- नही होता तुम्हारे बिन बसर अपना

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रसाल सिंह 'राही'

 

नहीं  होता   तुम्हारे   बिन  बसर अपना
तुम्हारे दिल  को ही  माना है घर अपना

यही  बस  पूछता  हूँ   हर  मुसाफ़िर  से
कि कितना रह गया बाक़ी सफर अपना

दगा   करना   नहीं   फ़ितरत  हमारी  में
हमें     मालूम   है   यारो    हुनर  अपना

पुरानी    याद    जब    कोई   सताती  है
बहुत  ही   याद   आता   है  नगर अपना

वही  महफ़िल   वही  रौनक  मुझे लगता
अग़र  वो  साथ  है  तो  हर  बशर अपना

नहीं  फिर  ज़िन्दगी  यह  ज़िन्दगी लगती
चला  जाये अग़र  कोई  छोड़ कर अपना

सुनाते  हाल  दिल   का  यह  किसे ‘राही’
यहां    लगता   नहीं   कोई   मग़र अपना

 

 

रसाल सिंह ‘राही’

~ रसाल सिंह ‘राही’

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