मैं झुकी थी – इसलिए उठ सकी

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आइये , सुनते है मनस्तगिति एक स्त्री की ,
अपने स्वर में कहती रची हुई एक गाथा की ,
अपने संघर्ष, अपनी अनुभूति और शक्ति को पाने की,
यह यात्रा खुद सुनाती है — शांत, दृढ़, और आत्मस्वीकृत स्वभाव में लक्ष्य पास जाने की ।

यह कविता उस स्त्री की आवाज़ है —
जिसने रास्तों को आसान नहीं पाया,
लेकिन झुकी नहीं ..थकी नहीं…रुकी नहीं ..
और अंततः विनम्रता से शक्ति को छू लिया —

“मैं झुकी थी — इसलिए उठ सकी”

(एक स्त्री की आत्मकथा में ढली कविता)

मैं भी दौड़ी थी —
उन ऊँचाइयों की ओर,
जहाँ नाम की मीनारें होती हैं,
और तालियों की गूँज सुनाई देती है।

पर जल्दी ही समझ में आया —
वहाँ पहुँचने के लिए
मेरे पाँव नहीं,
मेरे घुटने चाहिए थे।

हाँ,
मुझे झुकना पड़ा —
अपनी ही उम्मीदों की धूल में,
अपनी पहचान के कांटों में,
अपने ही सपनों के बीच से
रास्ता बनाना पड़ा।

शक्ति वहाँ नहीं थी
जहाँ लोग उसे सजाकर रखते हैं।
वो तो नीचे गिरी हुई थी —
किसी पुराने यक़ीन की तरह,
जिसे सबने भुला दिया था।

और मुझे…
मुझे उसे उठाने के लिए
अपने हाथ गंदे करने पड़े।
अपने घमंड को धोना पड़ा —
अपने आँसुओं से।

कई बार लगा,
कि मैं टूटी हूँ।
पर हर बार —
मैं खुद को समेट पाई,
क्योंकि मैंने झुकना सीखा था।

मुझे कोई सिंहासन नहीं मिला —
पर जब मैंने शक्ति को उठाया,
उसने मुझे
अपने बराबर बैठा लिया।

मैंने पाया क्या
इक निष्कर्ष — और मेरी सच्चाई:

“शक्ति उन्हें ही मिलती है, जो झुक कर उसे उठाने का साहस रखते हैं।”
मैं झुकी — पर टूटी नहीं। झुकी — ताकि उभर सकूँ।
शक्ति ने मुझे इसलिए स्वीकारा, क्योंकि मैंने उसे माँगा नहीं — निभाया।

हरेन्द्र “ हमदम” दिलदारनगरी
मौलिक व स्वरचित
@ सर्वाधिकार सुरक्षित

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