किसी अजनबी से बिना कारण जाने कभी मुलाकात हो जाए, नज़र मिल जाए, फिर बात हो जाए, और बाद में उससे एक घनिष्ठता बन जाए—शायद यही इत्तिफ़ाक़ है। पहली बार उसे जब देखा, वह भी एक ऐसा ही इत्तिफ़ाक़ था। अजीब सा अहसास हुआ। फिर बिना ख़्याल आए सबकुछ यूं ही हवा के झोंके की तरह गुज़र गया। पर तब से जब भी उसे देखा, वह सहमी हुई लगती थी। संयोगवश या अचानक मुलाकात होने पर जल्दी ही सामने से सिमटकर निकल जाती। कभी लगता कि उसका यह अंदाज़ कुछ बोलता है, कुछ कहता है, कुछ संकेत करता है। तब हम एक-दूसरे से बिल्कुल अजनबी थे। आते-जाते कई बार ऐसा लगता कि वह मुझे ग़ौर से देखती है, फिर भी मैं इन ख़्यालों से हमेशा दूर रहता। उससे बात करना तो दूर, उसका नाम लेना भी उसके साए से दूर था। पर संयोगवश उसके अपने सगे रिश्तेदार के कारण उससे नज़दीकी कब बन गई, पता ही नहीं चला। जब बातचीत शुरू हुई, तो आपसी दूरी और संकोच धीरे-धीरे घटने लगे। बहुत बाद में उसके बारे में बहुत कुछ जाना, तब आत्मीयता बढ़ी। हम दो वर्षों तक एक-दूसरे के इर्द-गिर्द रहे। मेरा आना-जाना वहाँ लगा रहा। देखते थे, मगर दूर-दूर रहकर ही। चलते-फिरते कभी-कभार छोटी-मोटी बातें होतीं, वह भी केवल सवाल पूछने जैसा—हाँ या नहीं के सिवाय और कुछ भी नहीं।
पर वह हमेशा मेरे पहुँचने से पहले तक एक बार उस हॉल से गुज़रती। शायद मुझसे कुछ कहने या कुछ सुनने की आस में। प्रत्येक दिन ऐसा ही होता। पर महसूस होने लगा था कि यह सब मेरे लिए, मेरे ही कारण होता। बहुत दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। मन में बातों की प्यास लिए वह इर्द-गिर्द से निकल जाती और मैं देखकर रह जाता। इससे ज़्यादा और कुछ नहीं।
जाने कितने दिनों तक ऐसा ही हुआ। कभी भी कोई बात नहीं हुई, केवल आँखों की प्रतिक्रिया रही। पर ना उसे शांति मिली और ना ही मुझे कुछ कहने का कोई रास्ता।
जब ठीक से, बातों से, एक-दूसरे के नज़दीक आए, तो उसे लिखने का कुछ काम सौंपा गया। उसने उस काम को दो बार अपना समझकर पूरा किया। शायद महीनों लग गए थे। यह करीब आने और रास्ता खुलने का केवल एक भाव था। पर आभास दोनों तरफ़ से हो गया कि इस नज़दीकी और क्रियाकलाप की क्या वजह है। फिर तब से, एक-दूसरे के स्वभाव में धीरे-धीरे ही सही, अपनापन दिखने लगा था।
एक दिन केवल इतना ही कहा कि आपको एक बात बतानी है। तब से वह उत्तर जानने के लिए मेरे पीछे पड़ गई। उसे अंदेशा था, आख़िर क्या बात हो सकती है? यह… या… वह… जाने कैसा और किस प्रकार की।
एक दिन अपने मन की बात लिखकर उसे बताया। उसे मालूम हो गया था। वह उसके ही मन की बात थी। फिर हम यूं ही दूर-दूर से कभी-कभार केवल आँखों से मिलते रहे। अब उसे पूरी तरह से मेरे मन की बात और विचार मालूम थे। पर सालों बीत जाने पर भी उसकी तरफ़ से उस बात का कोई जवाब या कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई।
यह सच था कि उसकी तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया, पर नज़दीकियाँ वैसी ही बनी रहीं। फिर ना हमने पहल की और ना ही उसने इस पर कभी चर्चा की। समय पूरा होने के बाद वह भी वहाँ से चली गई। बाद में जहाँ-तहाँ इत्तिफ़ाक़ से टुकड़ों-टुकड़ों में मुलाकात होती रही—कभी दुकान, कभी चौक, कभी सड़क पर आते-जाते कहीं भी। पर वह बात तब तक कई तहों के नीचे दब गई, जिसे खुलकर बाहर आना था।
लेकिन उस दिन जैसे परेशानी समाप्त हो गई। इत्तिफ़ाक़ से उस कंप्यूटर क्लास में वह भी आई, जहाँ हमने कुछ दिन पहले ही आना शुरू किया था। उसके मन तक पहुँचने की एक नई उम्मीद जन्मी।
उससे पहले मैंने कई बार केवल कागज़ों में लिखकर ही पूछा था। पर अब जब सामने हुए, तो सामने से ही पूछ लिया। मेरे प्रश्न का उत्तर उसने बड़ी मुश्किल से हिचकिचाते पर नरम स्वर में इतना ही कहा—”हाँ, चाहत है आपसे। प्यार मुझे भी है… पर, मैं यह कह नहीं सकती… कर नहीं सकती।” जानकर ऐसा मालूम हुआ कि…
इसके बहुत से उसके व्यक्तिगत और पारिवारिक कारण थे। उसके साथ बहुत बड़ी पाबंदियाँ थीं। परिवार का भय था। उसने बात-बात में ही अपने परिवार की पृष्ठभूमि से अवगत कराया। उसके डरने की वजह की घटनाओं का ज़िक्र किया।
तब से जब भी मुलाकात होती, कुछ न कुछ कहती, अपने बारे में ज़्यादा बताती। हमेशा विवश होकर यही कहती—”हम घर से कहीं भी आ-जा नहीं सकते।” उसकी मजबूरी का आभास मुझे भी था। यही जानकर मैंने उसे कभी उस बात के लिए ज़िद और विवश नहीं किया।
हम चाहकर भी आगे नहीं बढ़े। मन ही मन एकतरफ़ा चाहत फलता-फूलता परवान चढ़ता गया, पर दूर-दूर रहकर भी हमारी चाहत कभी नहीं झुलसी। उसने जब भी जो कहा, मैंने सहर्ष मान लिया। कभी ना कटाक्ष किया, ना ही नाराज़गी जताई। कोई गिला-शिकवा भी नहीं लगाया।
मुझे अच्छी तरह याद है। मैं रद्दी कबाड़ी की दुकान में किसी काम से बैठा था। वह उसी के बगल से गुज़र रही थी। बहुत सुंदर लग रही थी। वाकई, उससे पहले उस रूप में उसे कभी नहीं देखा था। वह बढ़े जा रही थी। उसके आगे एक पुरुष था। उसके हाथों में भारी-भरकम बैग था। देखते ही पहचान लिया। समझ में आया कि वह उसके पति हैं। आर्मी में हैं। शादी के तुरंत बाद दोनों जा रहे थे।
देखते ही मेरे मुँह से केवल इतना ही निकला—”मनीता, …अरे यह तो मनीता है।” यह मेरे मन की इतनी धीमी आवाज़ थी कि शायद चिट्ठी भी नहीं सुन पाती, पर उसने मेरा आहट पहचान ली। उल्टे पाँव वापस लौट आई। उसकी मनःस्थिति से लग रहा था कि उसकी शादी बेमन से हुई थी। मुझसे मिलते ही उसकी आँखें सैलाब में उमड़ गईं। उसे देखकर शायद मेरी भी। बहुत ही भावुक पल था। ऐसा लग रहा था, वह मुझे नहीं, बल्कि ज़िंदगी और दुनिया छोड़कर जा रही थी।
जाते-जाते वह कुछ ऐसा कर जाना चाहती थी, जो आज तक हमेशा दबा ही रहा। उसकी इच्छा थी कि रोते हुए भारी मन से गले मिलकर अंदर की तड़प शांत कर ले। इच्छा थी बाँहों में लिपटकर जीवन की हर दुख-दर्द को मिटा ले। पर नज़दीक आते ही मेरे दोनों हाथ आशीर्वाद के लिए उठ गए और वह झुककर पाँव छू ली। बस, दोनों की आँखों में आँसू थम नहीं रहे थे।शायद अधूरेपन में ही प्रेम की पूर्णता है, इसलिए प्रेम में मंज़िल नहीं, पड़ाव होते है।
पता- ग्राम+पोस्ट-चकमें, थाना-बुड़मू, जिला-रांची, झारखंड,
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