ईश्वरदास माधोपुर गांव में अपनी पत्नी सावित्री के साथ रहता था और वह माधोपुर के पास ही, लगभग पाँच किलोमीटर दूर, एक दूसरे गांव बसोली में सरकारी हाई स्कूल में इतिहास का अध्यापक था।
शादी के डेढ़ साल बाद ईश्वरदास के घर एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जिसका नाम उन्होंने युगदेव रखा। युग के आने के बाद ईश्वर और सावित्री उसकी देखभाल में अत्यधिक व्यस्त हो गए। यह सच भी है कि जब बच्चा छोटा होता है, तो उसकी तीन-चार वर्षों तक बहुत देखभाल करनी पड़ती है। ये तीन-चार साल इस तरह गुजर जाते हैं मानो तीन-चार महीने ही बीते हों।
समय अपनी गति से बिना रुके निरंतर आगे बढ़ रहा था। इसी तरह, समय के साथ युग भी बड़ा हो गया। चार वर्ष का होते ही ईश्वर ने युग का दाखिला घर के पास के एक स्कूल में करा दिया। युग पढ़ने में बहुत अच्छा था और उसे खेलकूद का भी बहुत शौक था।
ईश्वर और सावित्री युग की बहुत देखभाल करते थे। यह सच भी है कि पहले बच्चे को अधिक प्यार मिलता है। दो-तीन साल तक युग पास के स्कूल में ही पढ़ता रहा और चौथी कक्षा में ईश्वर ने उसका दाखिला अपने स्कूल में करा दिया। अब युग अपने पिताजी के साथ ही स्कूल जाता और पिता के साथ ही घर लौटता था।
इस तरह, ईश्वर को अपने बच्चे की पढ़ाई से संबंधित हर जानकारी रहती थी और जब कभी किसी विषय में उसकी कमजोरी का पता चलता, तो ईश्वर उसी अनुसार युग को ध्यानपूर्वक पढ़ाते।
समय की धारा बह रही थी और समय जैसे पंख लगाकर उड़ रहा था। एक दिन ईश्वर की माता युग से मिलने आईं और बातचीत के दौरान उन्होंने अपनी बहू से दूसरा बच्चा करने के लिए कहा।
सावित्री बोली, “मां जी, हम तो युग के साथ ही बहुत व्यस्त रहते हैं, हमें इसी से फुर्सत नहीं मिलती।”
कमला ने फिर कहा, “बेटी! कम से कम दो बच्चे तो होने ही चाहिए। दो बच्चे होंगे तो उनका आपस में रिश्ता बना रहेगा, वरना अकेला युग दूसरों में रिश्ते तलाशता रहेगा।”
यह बात सावित्री के मन में घर कर गई। वह इसी विषय में सोचते-सोचते रसोई में काम करने लगी।
शाम को खाना बनाते समय, प्याज काटते-काटते उसकी आँखों से आँसू निकलने लगे। दूसरी ओर, अपनी सास के शब्द उसके कानों में गूंजने लगे, “बहू, तुम्हें दूसरा बच्चा करना ही है।”
इस उधेड़बुन में सावित्री का मन बेचैन हो गया। लेकिन अंततः उसने इस बात को स्वीकार कर लिया।
रात को ईश्वर जब घर आया तो सावित्री ने पूरी बात उसे बता दी। कुछ देर सोचने के बाद ईश्वर को भी अपनी माँ की बात सही लगी। वह बोला, “देखो सावित्री, माँ सही कह रही हैं। दूसरा बच्चा तो होना ही चाहिए।”
सावित्री अब पूरी तरह से तैयार हो गई थी।
समय अपनी चाल के अनुसार बढ़ रहा था। सावित्री को नौवां महीना चल रहा था और ईश्वर अब उसका बहुत ध्यान रखने लगा था। एक दिन शाम को सावित्री को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई। ईश्वर मोहल्ले की दाई को बुलाने भागा और एक घंटे के भीतर उनके घर एक नन्ही सी गुड़िया का जन्म हुआ, जिसका नाम लक्ष्मी रखा गया।
लक्ष्मी के जन्म से युग फूला नहीं समाया। हालाँकि, लक्ष्मी और युगदेव की उम्र में लगभग दस-बारह वर्ष का अंतर था। माता-पिता की तरह युग भी अपनी बहन का बहुत ध्यान रखने लगा।
समय के साथ दोनों बच्चे धीरे-धीरे बड़े हो गए। युग मास्टर डिग्री करने के लिए बाहर चला गया, जबकि लक्ष्मी अपने माता-पिता के साथ रहकर पढ़ाई करने लगी। देखते ही देखते, युग 24 वर्ष का सुंदर नौजवान बन गया और लक्ष्मी भी बारहवें वर्ष में प्रवेश कर आठवीं कक्षा में पढ़ने लगी।
एक दिन लक्ष्मी की तबीयत अचानक स्कूल में खराब हो गई। उसे सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहाँ उसकी जांच शुरू हुई। सभी परीक्षणों के बाद डॉक्टरों ने बताया कि लक्ष्मी गंभीर किडनी रोग से जूझ रही है। स्थिति इतनी बिगड़ गई कि डॉक्टरों ने कह दिया कि लक्ष्मी की जान तभी बच सकती है, यदि उसे किडनी दान करने वाला मिल जाए।
सावित्री और ईश्वर की किडनी लक्ष्मी से मेल नहीं खा रही थी। दिन-ब-दिन उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी।
एक दिन अस्पताल में जब माता-पिता बाहर थे, तो युग अपनी बहन के पास बैठा था। लक्ष्मी ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “भैया, मुझे लगता है कि मैं अब नहीं बचूंगी।”
युग ने उसका मुँह ढक दिया और बोला, “बहना, तुम ऐसी बात मत करो।”
लक्ष्मी ने उदासी से कहा, “भैया, दिलासा देने से क्या होगा? सच तो यही है।”
अपनी बहन की हालत देखकर युग अंदर से टूट गया। उसी शाम उसने डॉक्टरों से बात की और अपनी किडनी दान करने का निर्णय लिया।
अगले दिन सभी परीक्षण हुए और यह पुष्टि हो गई कि युग की किडनी लक्ष्मी के लिए उपयुक्त है। डॉक्टरों ने ट्रांसप्लांट की तैयारी शुरू कर दी। अगले दिन सुबह सात बजे ऑपरेशन शुरू हुआ। यह ऑपरेशन पाँच घंटे चला और सफलतापूर्वक समाप्त हुआ।
लक्ष्मी को अब तक नहीं पता था कि उसे किडनी देने वाला कौन है।
शाम को जब दोनों भाई-बहन होश में आए, तो लक्ष्मी ने अपनी माँ से पूछा, “माँ, भैया को क्या हुआ?”
डॉक्टरों की टीम चेकअप के लिए आई और तब लक्ष्मी को पता चला कि उसे किडनी देने वाला और कोई नहीं, बल्कि उसका अपना भाई युग था।
डॉक्टर ने मुस्कुराकर पूछा, “लक्ष्मी, तुम्हें पता है कि आज कौन सा दिन है?”
लक्ष्मी ने सिर हिलाकर ‘नहीं’ कहा।
पूरा परिवार त्यौहारों को भूल चुका था, लेकिन नर्स ने लक्ष्मी को एक राखी थमा दी।
लक्ष्मी ने तुरंत अपने प्यारे भाई युग की कलाई पर राखी बांध दी। उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी।
बिस्तर पर लेटी लक्ष्मी ने छत पर घूम रहे पंखे की ओर देखा, फिर अपने भाई की ओर देखकर अपनी आँखें बंद कर लीं और भगवान को याद करने लगी।
उसने मन ही मन सोचा कि आज उसे अपने भाई की ओर से एक नई ज़िंदगी के रूप में ‘अनमोल उपहार’ मिला है।
उसके भाई ने सच्चे अर्थों में रक्षा बंधन के त्योहार को सार्थक किया था।
पता – राकेश बैंस
#3336, सैक्टर 32-डी, चंडीगढ़
