बीमार सुशील के सिर पर गीली पट्टियाँ रखते हुए रीना की आँखों में चिंता गहरी होती जा रही थी । बुखार था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था, और ऊपर से दवाई के लिए पैसे भी नहीं थे । आखिर, रीना से रहा न गया । उसने सुशील की अध्यापिका को फोन किया, “मैडम जी, सुशील बहुत बीमार है, उसका बुखार उतर ही नहीं रहा है ।”
मैडम ने तुरंत पूछा, “तुमने उसे दवाई दी ?”
रीना ने भारी आवाज़ में जवाब दिया, “नहीं, मैडम जी… सरकारी डिस्पैंसरी दो दिन से बंद है ।”
मैडम ने तुरंत कहा, “तुम्हारे घर के पास एक प्राइवेट क्लीनिक है, वहाँ से दवाई ले लो । पैसे की चिंता मत करना, मैं दे दूँगी ।” रीना ने झिझकते हुए जवाब दिया, “नहीं, मैडम जी, मेरे पास पैसे हैं, मैं दवाई ले लूँगी । मैंने तो बस इसलिए फोन किया कि सुशील दो-तीन दिन स्कूल नहीं आ पाएगा।” इतना कहकर उसने फोन काट दिया। पास ही लेटा सुशील सब सुन चुका था । उसने माँ का काँपता हाथ थाम लिया और मासूमियत से पूछा, “माँ, आपने झूठ क्यों बोला कि आपके पास पैसे हैं? अगर होते, तो अब तक दवाई आ न जाती?” रीना चुप रही।
सुशील ने माँ की आँखों में देखते हुए धीरे से कहा, “मैंने सब सुन लिया था, जब आपने चाची से पैसे माँगे थे… और उन्होंने कहा था कि जब इसका बाप मर गया, तो यह भी मर जाता !”
यह सुनते ही रीना ने सुशील को कसकर सीने से लगा लिया । माँ-बेटा देर तक अपनी बेबसी पर रोते रहे । रीना की आँखों में बीते सालों की तकलीफें घूम गईं। माँ-बाप ने आठवीं तक पढ़ाकर शादी कर दी थी, और बाईस की उम्र में वह विधवा हो गई। तब से जैसे पूरी दुनिया उसके खिलाफ हो गई थी। लोग उसे बोझ समझने लगे थे। वह सबकी आँखों का काँटा बन गई थी।
“क्या इस अंतहीन अँधेरे का कोई अंत होगा? क्या मेरी ज़िंदगी में भी कभी सवेरा आएगा?” रीना ने खुद से सवाल किया।
तभी सुशील ने उसके आँसू पोंछते हुए कहा, “माँ, एक दिन हम भी अच्छे दिन देखेंगे ना ?”
रीना ने सुशील के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा,”हाँ, बेटा। एक दिन ज़रूर।” थके-माँदे माँ-बेटा सुबकते-सुबकते कब नींद की गोद में समा गए, पता ही नहीं चला—शायद इसी बहाने, कुछ पलों के लिए ही सही, उन्हें दर्द से थोड़ी राहत मिल गई हो।
पता – गाँव पखरोल, डाकघर- सेरा, तहसील- नादौन,
जिला- हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश-177038