आज का समाज

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आज का समाज
चमकते स्क्रीन के पीछे, चेहरे छिपे हैं,
सपनों के पीछे भागते, रिश्ते सिमटे हैं।
शोर में डूबी चुप्पी, सच का आलम खोया,
इंसानियत का आलम, बस किताबों में सोया।
सड़कों पर भीड़ है, पर दिल हैं सुनसान,
हर कदम पर सवाल, कहाँ गया इंसान?
प्रगति की राह में, मूल्य पीछे छूटे,
गर्व से भरे हैं, पर भीतर से टूटे।
फिर भी उम्मीद की किरण, कहीं टिमटिमाती है,
एकता की बात, मन को लुभाती है।
हाथ बढ़ाएं अगर, साथ चलें कदम,
शायद फिर लौट आए, वो पुराना संभ्रम।

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