लघुकथा
सच्ची सुंदरता
वो झुर्रियों भरी काया आज उदास बैठी थी कंपकपाते हाथों के साथ खुद को दर्पण में देख व्याकुल हो रही थी
दर्पण यथार्थ को उजागर कर रहा था
और चिढ़ाते हुए काया से बोला :_बोल मेरी सुंदरी आज नहीं इठलाएगी,आज नहीं खुद को निहार निहार कर घमंड के सागर में डुबकी लगाएगी,आज अहम का श्रृंगार नहीं करेगी ,कहा है वो काजल के बादल में मिला गुरूर,कहा है वो गोरी दमकती सूरत में बहता अहंकार,कहा है जुल्फों संग इठलाता अभिमान,मुझे आज उससे नहीं मिलाएगी
दर्पण के शब्द काया को उसके कृत्य गिना रहे थे ,कैसे इस सुंदर काया के अभिमान में वो लोगों का तिरस्कार करती थी ,कैसे अपनी सवाली सी साधारण सी दिखने वाली सखियों का मजाक उड़ाती थी ,कैसे जब बहुत सी पुरुष नजरे उसे देखती थी तो वो बड़े शान से इठलाती थी,कैसे इस काया के अहंकार में उसने अंतरमन की आवाज को कैद कर लिया था कैसे ज्ञान को हमेशा फटकार कर पास आने से भगा दिया करती थी ,हमेशा से खुद को खास समझ कर किसी के साथ आत्मिक रिश्ते नहीं बनाए हमेशा काया की सुंदरता पर मोहित नजरो से जुड़ी रही जो एक एक कर के सब की सब कही विलुप्त हो गई और आज वो अकेली है
सोचते सोचते नम आंखों से दर्पण में देखने लगी जो आज उसे चिड़ा रहा था
वहीं दर्पण है ये जो कभी साथ में इठलाता था और बहुत प्यारा लगता था सच्चा साथी लगता था पर आज जीवन यथार्थ को उजागर किया तो ये दर्पण भी पराया लग रहा था
और आज काया खुद को अनदेखा करके आत्मबोध कर आत्मा से मिलने व्याकुल थी अंतरमन का श्रृंगार करना चाहती थी सच्ची सुंदरता को महसूस करना चाहती थी जो हर उम्र में खिली हुई और सुंदर हो
निरंजना डांगे
बैतूल मध्यप्रदेश