अफसोस

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अफसोस
दिसम्बर का महीना था, अगहन मास था। सर्द हवाएं बह रही थी। शेखर आफीस के किसी काम से झारखण्ड के छोटे शहर में गया था। वैसे तो झारखण्ड का पहाड़ी इलाकों में सालों भर सर्दी लगती थी। अब तो वहां के मौसम में भी प्रदूषण के वजह से प्राकृतिक सौंदर्य को आघात पहुंचा है और मौसम में काफी बदलाव आ गया है।
शेखर जहां गया था वहां छोटी जगह के वजह से सुविधा की कमी थी। शेखर को वापसी के लिए देर रात तीन बजे की ट्रेन थी। परंतु रात में वहां सात आठ बजे के बाद स्टेशन के लिए सवारी मिलना मुश्किल था। इसी वजह से वह रात के आठ बजे के करीब स्टेशन पहुंच गया।
छोटा सा स्टेशन ,जहां एक बल्ब टिमटिमा रही थी, जहां एक छोटा सा स्टेशन मास्टर का कमरा । टूटी फूटी प्लेटफार्म। प्लेटफ़ॉर्म के बीच बड़ा सा पेड़, पता नहीं कौन सा वृक्ष था। जिससे बहती ठंडी हवाएं वातावरण को सर्द कर रही थी। आसपास के लोग ठिठुर रहे थे। उसी पेड़ के पास रेलवे का पीने का पानी का नल लगा था। जबतक कुछ लोग थे चहल पहल थी। तब तक उस नल से पानी लेने में दिक्कत न थी। जैसे जैसे रात होने लगी स्टेशन पर जो भी दो चार लोग थे सब चले गए।
शेखर प्लेटफ़ॉर्म की कुर्सी पर अकेला बैठा था। उसकी ट्रेन देर रात आने वाली थी। स्टेशन मास्टर अंदर आफीस में बैठा काम कर रहा था और पास में ही एक सफाई कर्मचारी बैठा उनका साथ दे रहा था। रोशनी इतनी धीमी की कुछ पढ़कर समय बिता लेना , संभव ही न था।
तभी कुछ सरसराहट महसूस हुई, पीछे मुड़कर देखा एक बुढ़ी औरत सिर पर लकड़ी का गठ्ठर लेकर आई। देर रात ठंड में एक छोटी सी धोती में सारा बदन को लपेटे हुए थी। शेखर को उसे देखकर राहत महसूस हुई। चलो कोई तो इस वीरान में साथ मिला। शेखर ने पूछा , अम्मा कहां जाना है । पता चला वो सुबह ट्रेन से दातुन बेचने आती है फिर शाम को वापसी छह बजे की ट्रेन मिल जाती है। लेकिन आज उसकी गाड़ी छुट गई। अब जिस गाड़ी से शेखर को जाना है उसी से वह भी वापस जाएगी। शेखर को जानकर खुशी हुई।
शेखर ने गठ्ठर उतारने में मदद की। वह पास ही जमीन पर बैठ गई। फिर एक छोटी सी पोटली से मुढ़ी और आचार निकाली और खाने लगी। पानी का बोतल खाली था। वह भरने के लिए उठने लगी तो शेखर ने मना कर दिया और खुद बोतल लेकर पानी भरने गया। पानी का नल एक छोर पर पेड़ के पास था। शेखर को उस विशालकाय पेड़ के पास जहां सर्द हवा जोरों से बह रही थी, अब रात के अंधेरे में जाने से डर लग रहा था।। मरता क्या न करता।। इंसानियत के नाते भगवान को याद करता किसी तरह पानी लेकर आया।
बुढ़ी अम्मा खाकर पानी पिया और सिकुड़ कर लेट गई। शेखर को उसे देखकर दया आ गई। उसने अपना ऊनी चादर उसे ओढ़ने दे दिया। बुढ़ी अम्मा बोली- बेटा , तुम्हें ठंड लगेगी। हमलोगों को तो ठंड से लड़ने की आदत है। हम गरीब लोग हाथ पैर सिकुड़कर रात काट सकते हैं। पर शेखर ने मना कर दिया कहा, अम्मा मेरे पास जैकेट है, आप ओढ़ लो। बहुत ठंड है। बुढ़ी अम्मा बोली- साहेब , हम गरीब तो ऐसे ही ठंड बर्दाश्त करते न बर्दाश्त कर पाते तो भगवान के गोद में चले जाते हैं। कहां से सर्दियों के कपड़े जुटाए। दिनभर दातुन बेचकर पांच दस कमाते हैं । खाना भी जी भर नहीं मिलता है। कंबल लेना तो दूर की बात। पुराने कपड़ों को सिलकर ओढ़ना बनाती हूँ । आधा बिछाती हूँ और आधा ओढ़कर रात गुजारती हूँ। गरीबों के लिए तो ठंड का मौसम अभिशाप है। ये तो अमीरों का मौसम है।
शेखर चुपचाप सब सुनता जा रहा था। सारी बातों से अंदर ही अंदर ऐसी गरीबी देखकर अफसोस कर रहा था। क्या कदम उठाए ऐसे लोगों के लिए सोचता जा रहा था। तभी ट्रेन आकर रूकी। शेखर को अपनी बोगी में जानी थी और अम्मा को जेनरल में। बुढ़ी अम्मा ने चादर थमाते हुए कहा, बेटा भगवान तेरा भला करें। शेखर ने लेने से मना किया तो बुढ़ी अम्मा ने कहा- बाबू , इन सब की आदत नहीं है , घर लेकर जाऊंगी तो कोई चुरा लेगा।
कुछ दिनों बाद जब शेखर को पुनः उसी स्थान पर जाने का था उसने मन ही मन सोचा कि चलो, इस बार उस बुढ़ी अम्मा से उसके बताए हुए पते पर मिलूंगा और उन्हें ठंड से बचाव के लिए कुछ गर्म कपड़े भेंट दूंगा।
शेखर आफीस के काम से निपट उस बुढ़ी अम्मा के बताए जगह पर मिलने पहुंचा … खबर मिली … कि अम्मा ठंड सहन नहीं कर पाई …और उसी रात उनके प्राण पखेरू हो गए…
शेखर रास्ते भर अफसोस करता रहा था कि मैं उसके ठंड से बचने के लिए कुछ न कर सका…….
अंजू झा
जयपुर

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