निर्मेष

खोलो द्वार सीमाओं का

अपने दोस्तों के साथ अवश्य साझा करें।

पहलगाम आतंकी हमला

पहलगाम का सामूहिक
ये भीषण नरसंहार,
मांग रहा अपनो से ही अब
अपनो का हिसाब।

उनकी साफगोईयों का ये
कैसा उनको सिला मिला ,
खामोश सिंह को कहि
कायर तो नहीं समझ लिया।




निकले निहत्थे वे सब थे
जन्नत की एक सैर को ,
उनकी कब्रगाह बना दिया
तूने ही उस जन्नत को।

कभी सोचता हूँ जब इन
कायर जाहिलों के बारे में ,
बनते मर्द ये नामुराद
निहत्थों पर वॉर कर के।




हिम्मत रत्ती भर भी थी
तो सामने खुल कर आते ,
हथियार फेंक सामने से
दो-दो हाथ तो कर जाते।

देखते तेरी माता ने तुम्हे
कितना दूध पिलाया है ,
दूध मयस्सर कहाँ है तुमको ?
वल्दियत कहाँ तुम्हे भाया है।




मेमनों का कर शिकार
तीसमारखाँ बड़े बनते हो ,
तुम गीदड़ की औलादों
सिंह की तरह कहाँ लड़ते हो?

छिप कर वॉर किया तुमने
अब बिल में घुसकर बचते हो ,
रहा अतीत हमारा सुन लो
सर बांध कफ़न हम लड़ते है।




समय आ गया कि अब
तेरे गुनाह नहि गिने जाय ,
बस सीधे ही क्यों नहीं
अब हिसाब कर दिया जाय।

बेशक उत्तेजना इतनी
कहते कभी न अच्छी होती ,
लेकिन व्याकुल तन -मन से
अब है सब्र कहाँ ही होती?




खोलो द्वार सीमाओं का
हम भी दो -दो हाथ तो कर ले ,
अपने दिवंगतों को भी
श्रद्धांजलि कुछ ऐसे ही दे दे।

जान रहे या चली जाये
अब इसकी परवाह नहीं,
जीना पर कायरों की नाई
हमें और बर्दाश्त नहीं।




निर्मेष बहुत हो चुकी अब
है इनकी अगवानी,
इनके लहू से ही सिंचित
हो आर्यावर्त की बागवानी।

निर्मेष

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