आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार। दुनिया भर के धुरन्धर ज्ञानियों-ध्यानियों, धर्मज्ञ, तत्ववेत्ताओं के होते हुये इस समाज में मुझ जैसा महामूर्ख भी है जो नर और नारी के बीच उनकी छुपी हुई प्रतिभाओं-कलाओं से हटकर नर में छिपी नारी को देखता है। पुरुषों में नारी पुरुषोत्तमा है जो अणिमा,लघिमा सिद्धिया है, प्रकृति में संध्या, ऊषा, रजनी, पृथ्वी है, नदिया में गंगा,यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी है, भाषाओं में हिन्दी, अंग्रेजी, कश्मीरी, पंजाबी, सिंधी, मैथिली, आदि हैं, गृहस्थों व साधकों में गीता, भक्ति, आराधना, साधना, कामना, भावना, माया, काया, जाया, वीणा, वाणी, लक्ष्मी, सुधा-माधुरी है तो कवियों के लिये माॅ के रूप में वीणापाणी शारदा, कविता, कहानी, रचना, शायरी, डायरी, पोथी नारी प्रधान है, उद्योगों में मशीन, जनता में महंगाई आदि अनेक तुलनायें नारी से की जाकर नारी की श्रेष्ठता को सिद्ध किया गया है। अब आज के परिवेश में नारी की महिमा इन नारी सूचक शब्दों में लिखिए जिसमें कोई भी नेता या दल की तुलना करने से पहले उसकी ‘पार्टी ‘और उसकी ‘‘राजनीति‘‘ के लिये उगाहे जाने वाला ‘‘चन्दा ‘‘ ये तीनों भी नारीसूचक है। देश प्रदेश के राजनेता ही नहीं अपितु सरकारे भी नारियों को लुभाने के लिये मामा बनकर बहनों के लिये भाजियों के लिये लालच का जाल फैलाकर नारी महात्म्य के गुणगान कर नारी पर राजनीति कर रहे है।
शिव का एक स्वरूप अर्द्धनारीश्वर का है, जिसमें आधे शरीर में शिव नर रूप में स्वयं है और आधे स्वरूप में नारी रूप में पार्वती है, इसलिये सभ्य समाज नर और नारी में किये गये इस लिंग भेद के अंतर की जिज्ञासाओं से भरा है और जन्म से लेकर मृत्यु तक शरीर के भेद का पार नहीं पा सकते हैं। नर को नारायण कहा है और नारी को नारायणी। नारायणी वह है जो नारायण सहित सम्पूर्ण प्रकृति-सृष्टि की संरक्षिका है, आधार है इसलिये वह नर की अधिष्ठात्री है, यानी इस जगत में नारी सत्ता से ही नर की पहचान है और नर में नारी और नारी में नर का एकछत्र राज्य दिखाई देता है।
नर और नारी में लिंगभेद है जिसे बचपन में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, लिंग आदि व्याकरण पढ़ते समय मन में एक सवाल उठता रहा है और मन खुद से झगड़ता है कि भैईये जब नर और नारी का लिंगभेद स्पष्ट है तो यह तीसरा नपुसंकलिंग त्रिलिंग वृहंगला समाज दुनिया में अलग थलग क्यों हैं? लिंगभेद के इस झगड़े में संज्ञा, सर्वनाम के अतिरिक्त क्रिया, विशेषण, आदि सभी की निर्विवाद सत्ता है, पर आप विशेषण और क्रियाविशेषण के मेरे तर्क से पिण्ड छुड़ाना चाहेेंगे और मेरे इस विषय को लेकर बाल की खाल निकालने जुट जायेंगे, आप अपना काम करें, मैं अपना काम करता हॅू, मैंने काम ठान लिया है कि इन तीनों लिंगों में नर, नारी अर्द्धनारी-नर से हटकर एक तीसरा ही समलैंिगकों का समाज ऊग आया, इन सबके निर्विकार सत्य आप तक पहुॅचाने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं अपनी बात की शुरूआत में एक उदाहरण देना चाहता हॅू कि जिस प्रकार मनुष्य के किसी भी अंग की वृद्धि से उसके शरीर की उन्नति नहीं समझी जाती, प्रत्युत उसकी वकृतावस्था ही समझी जाती है और यदि मनुष्य का प्रत्येग अंग पुष्ट हो जाये तो वह अत्यन्त सुन्दर, आकर्षक व दर्शनीय हो जाता है। शरीर के अंगों के साथ उसके चित्त-बुद्धि की उन्नतियाॅ भी महत्व रखती है, पर हमारा लक्ष्य नर में नारी और नारी में नर है इसलिये इन दोनों के अंगों के नाम को लेकर विचार रख रहा हॅू जिसमें नारी का फौलादी यर्थात और शब्दलालित्य आप सभी पाठकों को गुदगुदा सकें। इस जगत में देखा जाये तो नर यानि पुरूष के अंगों में नारी भी अपनी सत्ता का जलवा बिखेरती है, वहीं नारी के शरीर के अंगों में पुरूषवाचक संज्ञायें उसका पीछा नहीं छोड़ती है, तो दूसरी ओर दोनों के अंगों को एक ही संज्ञासूचक से पहचाना जाता है।
पुरूष के पांव से सिर तक नारीसूचक शब्दों का महाजाल है जिसमें अगर आप पांव से देखें तो पहले एढ़ी, पिंडली, नाभि,कोहनी, ठुडडी,हड्डी, पसली, चमड़ी, छाती, पलक, नाडी, कलाई, पीठ, धमनी, नाक, आंख, मुठटी, तर्जनी,जीभ और धमनी आदि है। धरती से लेकर आकाश तक, नीचाई से लेकर ऊॅचाई तक और चैड़ाई से लेकर लम्बाई तक इंच-इंच में नारीवाचक शब्दों का महाजाल बिछा दिखाई देता है। लौकिक तुलनाओं में नर शरीर के अंगों में नारी की श्रेष्ठता सिद्ध है। अब पुरूषलिंग सूचक शब्दों में घुटना है, जो घुटने टेकने को विवश कर देता है, कंधा और हाथ है जो हर जगह भिखारियों की तरह झुकने को तैयार रहता है, ओंठ है जो सिले होते है या दाॅतों से काॅटे जाते है, कान हमेशा उमेढ़ने या कान पकड़कर उठा-बैठक के लिये होते है।
लिंगभेद की उलझन मेरे मतिष्क को चकरघिन्नी किये है, कि लिंगभेद में स्त्री पुरूष की व्याख्या के बाद नपुसंकलिंग को हम तीसरा जेन्डर मानकर जड़ के रूप में अपने समाज में स्थान दिये है, क्या वह भूल अथवा हमारी अल्पज्ञता नहीं है। नपुसंकलिंग में जड़ वस्तुयें है तो उसमें मानव समाज का वह तीसरा व्यक्ति भी शामिल किया है जो न नर है और न ही नारी, लेकिन वह इंसान तो है, फिर इंसान जड़ कैसे हो सकता है, वह उतना ही संवेदनशील, भावप्रदान है जितना स्त्री और पुरूष होते है। सौन्दर्य की प्रतिमा अर्थात सुन्दरता के प्रतिबिम्ब स्त्री-पुरूष पर लिखना कठिन है, पर मैं यह रिस्क ले चुका हॅॅू, पर एक नवीन समस्या देश में उत्पन्न हो गयी जिससे अंजान रह पाना में उचित न मानते हुये नर,नारी के साम्राज्य को चुनौती देने समलैंगिकों का आना और अनैतिकता सबंधों को मान्यता देने की माॅग करना हिन्दुस्थान के एक खतरनाक बीमारी है जिससे पूरा देश परेशान है।
बीमारी कहना, बीमारी का अपमान होगा, असल में सृष्टि के पालनकर्ता का प्रकोप कहना ठीक होगा, जो उन्होंने भारत में जीते जी बिगडैल युवाओं केे लिये अपनी बनाये नारी सौन्दर्य से वंचित करते समलैंगिक यौन सम्बन्धों के मोहजाल में फॅसाकर घोर नर्क की व्यवस्था कर दी है। लज्जित होने को तैयार ये लड़के-लड़कों से और लड़की लड़की से समलैंिगक विवाह की मान्यता पर अड़े है, जो सृष्टि के विधान के विपरीत है। जहाॅ सारी प्रकृति, सृष्टि नर और नारी के जोड़े के रूप में सहचर्य द्वारा अपनी वंशवृद्धि करती है, यह प्रकृति का एक अटूट नियम है। इस कलिकाल में ऐसी नस्ल का आना सृष्टि की वृद्धि में नर-नारी से होने वाली संतति पर विराम लगाकर उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करेगा वही समाज को शर्मसार भी करेगां। विचार कीजिये भारत जैसे संस्कारप्रदान देश में सदियों से चली आ रही ं सनातन परम्परा एवं गुरूकुल परम्परा तथा प्राकृतिक व्यवस्था के तहत नर नारी के जोड़े को नकार कर नर का नर से और नारी का नारी से जोड़ा बनाकर अप्राकृतिक, असामान्य यौन सम्बन्ध स्थापित करने के लिये समलैंगिक शादी की मान्यता देने तथा इन समलैंगिक सम्बन्धों को कानून कीं धारा 377 को अपराध की श्रेणी से बाहर किये जाने की माॅग मानना कहीं अधर्म, अनीति, अत्याचार नही।
तीसरे लिंग में वृहंगलायें है वे प्रकृति द्वारा उन्हें दिये स्वरूप के बाद भी पूरे सम्मान के साथ भारत में इन अप्राकृतिक विचारों में नहीं, पर आज सभ्य, सुशिक्षित कहे जाने वाले युवा जो अपनी ऊर्जा से जगत में विकास की क्रांति के अध्याय लिख सकते है, वे कामुकता के अधूरेपन में समान-सेक्स में विवाह का भविष्य तलाश रहे है। भारत जैसे देश में समानलिंगी जोड़ोें कोे कोई भी परिवार-समाज अपने साथ रखने की गारंटी लेकर सुरक्षा देगा, यह संभव नहीं है, क्योंकि कोई भी नही ंचाहेगा कि इनके साथ रहने से उनकी संतानों पर बुरा असर पड़ेगा। व्याकरण की प्रमुखता में संज्ञा शब्द की पहचान के रूप में लिंग तीन प्रकार के बताये है पुर्लिंग जिसमें पुरूषों का बोध होता है और स्त्रीलिंग जिसमें स्त्री का बोध होता है तथा नपुसंकलिंग जिसमें जड़ का बोध होता है। कुछेक का अभिमत रहा है कि नर ही नारी की खान है और नर से ही नारी है।
नर नारी ही नहीं अपितु चराचर जगत के सौन्दर्य की उपमा ‘‘सुन्दर‘‘ शब्द से की जाती है। इन हालातों में यहां ‘‘सुन्दर‘‘ शब्द अपने को अभागा मानता होगा । आ सोचेंगे ‘‘सुन्दर‘‘ शब्द अभागा क्यों है? कारण जब समस्त जगत-सृष्टि के साथ नर-नारी अपने आप में सुन्दर होते हुए ‘‘ ऐसे हतभागी बन जाये जो समलैंगिकता जैसी अनैतिकता को स्वीकारें तब सौन्दर्य की रोचकता घातक परिणामदायक होगी। सौन्दर्य जिस साधारण तृप्ति का नाम है उनमें परस्पर एक दूसरे के उद्वेग का स्पर्श, मन, हृदय और प्राणों में भावनात्मक, काल्पनिक वैचारिकता, उदात्त वेदना का संचार द्वारा स्फूर्ति, सृजन और शांति की अभिव्यंजना है। नर-नारी के शरीर से पृथक नर के इस अभिव्यंजित देह को स्त्री मूल की पहचान मिलना, नर के अंगों में स्त्रीवाचक शब्दों की संज्ञा और सर्वनाम से पहचान होना सौन्दर्य की जननी नारायणी की उत्पत्ति जिन 52 मातृकाओं से हुई है, वह विचार इस जगत के निर्माता ने नर में नारी और नारी में नर का साम्राज्य स्थापित कर उनके जीवन में एक अपूर्व सौन्दर्य के साथ विभिन्न गुणों-भावों से पूर्ण किया है।
आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
श्रीजगन्नाथ धाम काली मंदिर के पीछे, ग्वालटोली
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