बूढ़े की श्रद्धा देखकर रंजन साहब भावुक हो उठे। जाने क्यों कोने पड़े उपहारों की ढेरी में सबसे कीमती उपहार गठरी में बंधे ये चावल ही जान पड़े। गठरी भी कैसी बिल्कुल दीन-हीन अवस्था में। एक बारगी लगा जैसे सुदामा आ गए हों कृष्ण की द्वारिका में और कृष्ण ने सुदामा की चावल से भरी पोटली अधिकार पूर्वक ले ली हो।
सरस्वती रमेशगोविंद का मन खिन्न है। दिन-रात बस वही चिंता कठफोड़वे की तरह चोंच मार रही है। किसी काम में जी नहीं लगता। घर की दीवारें सब मौन हैं। चूल्हे में ठंडी पड़ी आग की तरह उनकी भूख-प्यास भी ठंडी पड़ चुकी है। बुढ़ापे की हड्डियों का बचा-खुचा बल आंसुओं के साथ अवशोषित हो चुका है। पत्नी सुशीला के आंसू गोविंद के हृदय में बरछी की तरह चुभते हैं। वह बार-बार उस मनहूस घड़ी को कोसता है, जब उसने रामू को लखनऊ भेजने का फैसला किया था।
चौमासों के दिन थे। कई दिन से बरसात रुकने का नाम नहीं ले रही थी। गोविंद के खेत दो साल पहले से ही शांतेश्वर प्रसाद के पास गिरवी पड़े थे। जब एक रात रामू को पेट में भयानक दर्द उठा था। डॉक्टर बोले, ‘अपेंडिक्स है। ऑपरेशन करना पड़ेगा।’ आनन-फानन में खेत गिरवी रख गोविंद ने पैसों का इंतजाम किया। रामू ठीक हो गया मगर खेत जाने से घर की लक्ष्मी भी चली गई। धीरे-धीरे भंडार घर खाली होने लगे। बरसात ने गांव में खेती किसानी में मिलने वाले काम भी बंद करवा दिए थे। तेल-नून के डिब्बे खाली हो चले थे। एक दिन गोविंद ने रामू से कहा, ‘बेटवा, लखनऊ में कुछ न कुछ काम जरूर मिल जाई। बंसी काका के लड़िका मुन्ना भी ओहीं है। सुना है छपाई कारखाना में काम करत है।’
रामू ने पिता की बात न काटी और अगले इतवार को लखनऊ जाने वाली पैसेंजर पकड़ ली। बेटे के जाते ही घर भांय-भांय करने लगा। अभावों से भरे इस घर में बेटे की उपस्थिति ने ही दोनों को खड़ा कर रखा था। मेहनत-मजदूरी से जो भी मिलता, वही भरा-पूरा जान पड़ता। बेटे की जवान होती भुजाएं उनके झुकते कंधों की बैशाखी थीं। गोविंद ने उसी बैशाखी को दूर भेज दिया था। मगर बेटा गया है तो कुछ काम-धंधा ही सीखेगा, यही सोचकर थोड़ा संतोष मिलता। वे पत्नी को समझाते और खुद भी हौसले का कोई कमजोर-सा स्तम्भ पकड़ खड़े रहते।
बेटा चला तो गया मगर उसकी कुछ खबर न मिली। लखनऊ गए कई लोग गांव वापस लौट आये थे। मगर रामू का कोई अता-पता नहीं। रामू को पहुंचकर कुछ खबर देनी चाहिए थी। शायद काम-धंधे की तलाश करने में वक्त ही न मिला हो या किसी काम में लग गया हो और बताने की फुर्सत न मिली हो। कई हफ्तों तक गोविंद इन्हीं सम्भावनाओं से खुद को बहलाता रहा। दिन बीतते रहे। महीना बीता। फिर साल भी बीत गया। रामू का कुछ पता नहीं चला। गोविंद एक बार मुन्ना के साथ लखनऊ भी गया। मगर इतने बड़े शहर में कहां खोजता अपने रामू को। दो-तीन दिन वहीं भटक कर फिर लौट आया।
अब रामू की अनुपस्थिति बिच्छू की तरह डंक मारती। बेटे के बिना पत्नी सुशीला की हालत देखकर गोविंद का मन कुम्हलाए हुए फूल की तरह हो गया। स्वयं को बार-बार कोसता, जाने किस घड़ी में बेटे को भेजने का कुविचार पनप गया।
कुछ दिन बाद गांव में इलेक्शन आ गया। हर ओर चुनावी गहमा-गहमी फैल गई। बड़े-बड़े दलों के नेता वोट मांगने लोगों के घर-घर पहुंचने लगे। गोविंद हर किसी को रामू की फोटो दिखाकर मदद की दरख्वास्त करता। हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता। नेताओं से पूछता, कोई तो रास्ता होगा रामू को खोजने का। मगर कोई कुछ न बता पाता। सब खोखला आश्वासन और सहानुभूति की पुड़िया उसे पकड़ा कर चले जाते। आखिर गोविंद ने मान लिया अब उसका रामू नहीं मिलेगा। बुढ़ापे की लाठी खो गई। अब कलपने के सिवा जीवन में कुछ नहीं बचा। एक दिन सुशीला की बहन उससे मिलने पहुंची। बेटे के बिना दोनों टूट चुके थे। अपनी बहन और जीजा की ये दशा उससे देखी नहीं जा रही थी।
वह बोल पड़ी, ‘जीजा, एक बेर रंजन साहब से मदद मांग के देख लेव। नए-नए बिधायक बने हैं। उ भी हमरे ही बिरादरी के हैं। शायद हमरे रामू को खोज निकाले।’
‘कौनो फायदा नाही है। गरीबन के सुने वाला कौनो नाही।’ गोविंद ने बुझती लौ समान धीमी आवाज में कहा।
‘एक बार जाईके तो देखो। सुना है कल उनकर जन्मदिन भी है।’
‘जन्मदिन है तो का खाली हाथ चले जाएं।’
‘खाली काहे। हम पांच किलो चावल लाये हैं। ओही लेके चले जाना।’
गोविंद ने सुशीला की ओर देखा। उसकी आंखों में जैसे कोई उम्मीद चमकी। इस उम्मीद को खारिज करने की हिम्मत गोविंद नहीं कर पाया। अगले दिन वह रंजन साहब के घर चल पड़ा। रंजन साहब के घर आज सुबह से ही लोगों का तांता लगा हुआ है। हर कोई रंजन साहब को जन्मदिन की बधाई देने के लिए उतावला हो रहा है। हो भी क्यों न। रंजन साहब क्षेत्र के विधायक जो ठहरे। हालांकि रंजन साहब शहर में रहते हैं और उनका विधानसभा क्षेत्र शहर से चालीस किलोमीटर दूर स्थित है। पर आने वालों की कोई कमी नहीं। असल में, उनकी कृपा दृष्टि जिस पर हो जाए, उसके भाग्य उदय हो सकते हैं। इसलिए सब अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से उपहार लेकर चले आ रहे हैं। किसी के हाथ में ब्रांडेड कपड़ों का पैकेट है तो किसी के हाथ में मिठाइयां। कोई नमकीन के पैकेट लेकर आ रहा है तो कोई ड्राई फ्रूट्स। कोई फूलों का गुलदस्ता तो कोई फूलदान। हॉल के एक कोने में उपहारों का ढेर लग गया है। लोगों की शुभकामनाएं लेने के लिए आज रंजन साहब भी सुबह से ही नीचे हॉल में बैठे हैं। सभी के उपहार पूरी आत्मीयता से स्वीकार कर रहे हैं। बड़ों को प्रणाम और छोटों को आशीष दे रहे हैं। पूरा दिन गहमा-गहमी में बीत गया। शाम ढलने को हुई तो लोगों का आना कम हुआ। जब लगा अब कोई नहीं आएगा, रंजन साहब उठकर जाने लगे। तभी गोविंद ने मुख्य द्वार पर दस्तक दी। हाथ में लाठी, मैले-कुचले कपड़े, कुर्ते में कई जगह पैबंद लगा। मैल के कारण धोती का असली रंग पता नहीं चल रहा था। माथे पर पसीने की बूंदें चूचुहा गई थीं। कुर्ता भी कुछ गीला हो चला था। सिर पर गठरी धरे उसने भीतर प्रवेश किया।
रंजन जी ने आगे बढ़कर बूढ़े की गठरी उतार ली और उनको सोफे पर बैठने का इशारा किया। नौकर से पानी लाने का संकेत किया।
‘आइए बैठिए बाबा। कहां से चले आ रहे हैं?’ रंजन साहब ने पूछा।
‘हम रामपुर गांव से आये हैं। आपको जन्मदिन की शुभकामना देय खातिर। हमरी ओर से ई छोटी सी भेंट स्वीकार करो।’ बूढ़े गोविंद ने गठरी रंजन साहब को सौंपते हुए कहा।
‘इस गठरी में क्या है बाबा?’ रंजन साहब ने पूछा।
‘चावल है। हम गरीब लोग हैं साहेब। तोहफा नहीं खरीद सकते। इसे ही हमार तोहफा समझो।’ गोविंद ने संकोच से कहा।
‘बाबा आपने मेरे लिए इतनी तकलीफ क्यों की?’
‘तुम हमरे बेटवा जैसे हो। बेटवा से तो स्नेह होता है, तकलीफ नहीं।’
बूढ़े की श्रद्धा देखकर रंजन साहब भावुक हो उठे। जाने क्यों कोने पड़े उपहारों की ढेरी में सबसे कीमती उपहार गठरी में बंधे ये चावल ही जान पड़े। गठरी भी कैसी बिल्कुल दीन-हीन अवस्था में। एक बारगी लगा जैसे सुदामा आ गए हों कृष्ण की द्वारिका में और कृष्ण ने सुदामा की चावल से भरी पोटली अधिकार पूर्वक ले ली हो।
‘कहां खो गए बेटवा।’ बूढ़ा गोविंद बोला।
‘कहीं नहीं बाबा, मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताइये।’ रंजन जी ने खुद को संभालते हुए कहा।
‘सेवा तो कुछ नाही एक उपकार कर दो,’ बूढ़ा बुदबुदाया। और अपने कुर्ते की जेब से एक तस्वीर निकालकर रंजन साहब के आगे बढ़ा दिया।
‘ई हमार बेटवा है रामू। सालभर पहले लखनऊ गवा रहा काम की तलाश में। अबही तक नाही लौटा। इसकी कोई खबर मिल जाये तो बड़ा उपकार होगा।’ गोविंद ने बोझिल स्वर में कहा।
रंजन साहब ने फोटो ध्यान से देखा।
‘बाबा आप अपना नाम, पता लिखवा दीजिये। हम पता करते हैं। हमें जैसे ही कुछ पता चलेगा, हम आपको संदेश भिजवा देंगे।’
‘साहेब जरा धियान रखें।’ गोविंद ने हाथ जोड़कर कहा।
‘आप चिंता न करें। आपके बेटे को तलाशना हमारी जिम्मेदारी है।’ रंजन साहब बोले।
मिटती उम्मीद एक बार फिर जीवित हो उठी। बेटे को पाने की लालसा फिर हिलोर मारने लगी। इंतजार की लंबी सड़कें कुछ छोटी जान पड़ीं।
रंजन साहब का लखनऊ आना-जाना था। वहां के बड़े ओहदे के लोगों से जान-पहचान थी। रामू को खोजने में बहुत मुश्किल नहीं हुई। मगर मुश्किल यह हुई कि रामू चोरी के जुर्म में जेल में बंद था। लखनऊ जाकर रामू एक सेठ की दुकान पर नौकरी कर रहा था। एक दिन दुकान में चोरी हो गई। सेठ को रामू पर शक हुआ। उसने उसे जेल भेजवा दिया। तब से वह जेल में ही बंद है।
रंजन साहब ने इलाके के दरोगा को मामले की जांच करने का अनुरोध किया। छानबीन करने से पता चला रामू निर्दोष है। रामू जेल से रिहा हो गया। रंजन साहब स्वयं उसे लेने गए। उसे लेकर वो सीधे गोविंद के पास पहुंच गए।
‘लो बाबा मैं आपका बेटा वापस लेकर आया हूं।’ रंजन साहब ने बूढ़े के घर पहुंचते ही कहा।
सालभर से लापता बेटे को देखते ही बूढ़े गोविंद की आंखें छलक उठीं। पत्नी भी भीतर से भागती हुई आई। इतने दिनों की प्रतीक्षा के बाद सहसा बेटे को देखकर उन्हें अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हो रहा था। दोनों ने रामू का चेहरा छू कर देखा। बाहें दबायीं। उंगलियां भींच कर उसके अहसास को अपने भीतर उतारा। जब रामू के लौटने का पूरा भरोसा हुआ तो दोनों बेटे से लिपट रोने लगे।
‘हम लौट आएं हैं बापू। अब काहे रो रहे हो।’ रामू बोला।
‘रो नाहीं रहे हैं। ई तो तुमसे मिले की खुशी है पगले।’ गोविंद ने कहा।
रंजन साहेब गीले नेत्रों से सब देख रहे थे।
बड़ी देर बाद गोविंद ने खुद को संभालते हुए कहा, ‘हमार बेटवा को लाकर आप हमार जीवन वापस लाये हो। आप हमरे भगवान हो। ई उपकार का बदला हम कईसे चुकाएंगे।’ गोविंद ने हाथ जोड़ रखे थे। रंजन साहब ने उसका हाथ पकड़ लिया। ‘बाबा आपने हमें बेटा माना है। बेटे उपकार नहीं करते, बस स्नेह का बदला स्नेह से चुकाते हैं।’
कहकर रंजन साहब अपनी गाड़ी में जा बैठे। पांच किलो चावलों के मामूली भेंट के बदले बूढ़े को वो एक कीमती भेंट देकर लौट पड़े।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब