रवि कुमार

सत्य कि झलक दिखाने वाला

उत्साह हूँ आनंद हूँ अंधकार को चीरता रवि हूँ सत्य की झलक दिखाने वाला मित्रों मैं एक कवि हूँ सत्य पथ पर चलता हूँ आलोचना से कब डरता हूँ प्रेरित हो इस जगत से अपनी रचनाये लिखता हूं दिखाता सबकुछ समाज का धरती पर समाज का छवि हु सत्य की झलक दिखाने वाला मित्रो मैं […]

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कविता

मधु लिमये

60 और 70 के दशक में एक शख्स ऐसा हुआ करता था जो कागजो का पुलिंदा बगल के दवाये हुए जब सांसद में प्रवेश करता था तो ट्रेजरी बेंच पर बैठने वालों की फूंक सरक जाया करती थी कि न जाने आज किसकी शामत आने वाली है जी हाँ जिक्र हो रहा है समाजवादी आंदोलन

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आलेख

विधि विधान प्रबल है

शीर्षक:- विधि विधान प्रबल है…….!! एक बार पृथ्वी पर देवताओं का सम्मेलन आयोजित किया गया और उस सम्मेलन में देवलोक से सभी देवताओं ने हिस्सा लिया! सभी देवता अपने अपने वाहनों से सम्मेलन में भाग लेने के लिए देवलोक से पृथ्वी पर आ रहे थे! उसी समय पर सम्मेलन में भाग लेने के लिए सूर्यपुत्र

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कहानी

माँ का आँचल है संसार

मां का आंचल है संसार जिसमें है दुनिया का प्यार धूप लगे तो मां का आंचल घनी छांव बन जाता है भूख लगे तो मां का आंचल बच्चे का व्यंजन बन जाता है मां का आंचल प्रेम की छाया मां का आंचल प्रेम की धार मां के आंचल में सब सुख हैं मां का आंचल

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कविता

तुम्हारे साथ रहकर जाना मैंने

तुम्हारे साथ रहकर जाना मैंने , हथेली में रेखाएं नहीं रंग होते हैं शामें बतियाती हैं , सहर संग खतों से भी झरते हैं , पारिजात के पुष्प तुम्हारे साथ रहकर जाना मैंने , कितना सुकून देती है , दुखों की चोरी कितना ज़रूरी है , किसी मोड़ पर ठहरना भी केवल मौन से ,

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कविता

हाय रे ये गरीबी……..!!

गरीबी…….!! अक्सर राह चलते बदतर हालात में भिखारी मिल जाते हैं! उनकी जिंदगी नर्क से भी अधिक बदतर होती हैं, जो उनके पिछले जन्मों के कुकर्म घोर पाप का दंड हैं, जो आज वर्तमान जीवन में विवश होकर लाचारी में जिंदगी काट रहे हैं…..!! कलम…. आतुर हो उठ चल पड़ी और चंद पंक्तियों को धागे

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कविता

कर्म – उत्थान पतन का मुख्य स्रोत……..

कर्म – उत्थान पतन का मुख्य स्रोत…….!! दिन को अपने प्रकाश पर अंहकार था! उसको यह भ्रमजाल हो गया था कि मैं प्रकाश हूं और मेरी वजह से पूरा विश्व प्रकाशमय है! उसको अपने प्रकाश पर यह अहंकार हो गया था कि मैं अगर प्रकाश ना करूं तो संसार अंधकार के गर्त में चला जायेगा!

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लघुकथा

बरसों पहले मैं छोटा था

शीर्षक:- मैं छोटा था……!! बरसों पहले मैं छोटा था! भीतर में चंचलता ना मन खोटा था!! बढ़ती उम्र से मुझमें बदलाव आया! नंगा घूमता था वस्त्र धारण कर आया!! बिन बुलाए प्रीत लगाई जाती थी! वो ठहाका था यारों, जब एक हाथ से ताली बजती थी! आलम ऐ वक्त वो भी देखा है हमनें यारों…..

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कविता

पृकृति एवं बेटियाँ

पृकृति एवं बेटियाँ पृकृति और हमारी बेटियों की प्रवृत्ति में काफी हद तक समानताएं हैं। या यूँ कह लीजिए, एक ही तराजू के दो पलड़े हैं। हम और आप भलीभांति जानते हैं कि- प्रकृति नहीं होती तो जीवन असंभव था, और यदि बेटियाँ नहीं होती तब भी। यदि हम प्रकृति को सुरक्षित रखते हैं तो

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लघुकथा

स्वर्णिम काव्य-कथा प्रतियोगिता

रचना – 1 रचना का शीर्षक-गृह लक्ष्मी बिन घर भी सूना लगता है। नारी जहां पूंजी जाए देवों का निवास हो, नारी जिस घर में सुख समृद्धि का वास हो। नारी बिन तो सब कुछ अधूरा लगता है, गृह लक्ष्मी बिन घर भी सूना लगता है।। 1/नारी हांड़ मांस का पुतला मात्रा नहीं है, अपनी

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कविता

लघुकथा

लड़की और जुगनू (लघुकथा) बचपन से ही लड़की को जुगनू (खद्योत) को निहारना बहुत पसंद था। रात को कुछ जुगनू उसके कमरे में आ जाते थे। तब उसे ऐसा लगता था जैसे वह आकाशगंगा में तैर रही हो। जिस रात उसे जुगनू कम नज़र आते, वह उदास हो जाती थी। “जुगनू से घर में आग

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लघुकथा

अपना नव वर्ष मनाएंगे

अपना नव वर्ष मनाएंगे हवा चली पश्चिम की सारे कुप्पा बन कर फूल गये सन ईस्वी तो याद रहा अपना संबत भूल गये चारों तरफ नये साल का ऐसा मचा है हो-हल्ला बेगानी शादी में नाचे जैसे दिलदीवाना अब्दुल्ला धरती ठिठुर रही सर्दी से घना कुहासा छाया है कैसा यह नववर्ष है जिससे सूरज भी

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कविता

अनकहे जज़्बात

शब्द अधूरे लब्ज़ अधूरे, तुम बिन अधूरे है सुर सारे संगीत के मेरे आकर बस जाओ जो तुम इसमें गुनगुनाऊं मै तुमको इसके हर सुर में कुछ शब्दो में तुझे निहारूं कुछ में तेरा मासूम सा चेहरा कुछ सुरों में ढूंढू हंसी तेरी कुछ सुरों में वजह तेरी खामोशी की शब्द अधूरे लब्ज़ अधूरे तुम

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कविता

मै हु अन्न का दाता

मै हु अन्न का दाता पल पल पर मै आजमाया हु जाता सदी,गर्मी,बारिश में भी अडिग हो अपना कर्तव्य हु निभाता भीष्ण हो गर्मी , या हो ठिठुरती ठंडी सब जाते है हार जब जब मै अविरल सा कर्तव्य पथ पर हु चलता पसीने से मैं फसलों को सींचता कर परिश्रम अन्न उगाता दिन रात

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कविता

ये कैसी नमी !

उद्धस सी जमीं सूखी-बेजान सी धरा को, अचानक हुआ कुछ तरावट का एहसास धरा का मन प्रफुल्लित हर्ष से आनंदित हलाहल कर उठेगीं, फसल, हजार परन्तु शीघ्र ही खुशी सारी मायूसी में बदल गई धरा का कलेजा छलनी हो गया वह नमी तो थी एक कृषक की ,अश्रुधार।।

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कविता

मै नन्ही सी हु एक गुड़िया कांच सी बिखरी हुई एक गुड़िया

मैं नन्ही सी हु एक गुड़िया नाम दे दो मुझको तुम चाहे रानी, बानी चाहे तो मुनिया नासमझ सी नन्ही सी गुड़िया दुनियादारी से दूर ये गुड़िया मीठी सी चाशनी में घोल कर पिलाई थी जिसे जहर की पुड़िया कहानी हुई शुरु वहां से जहां होती है विश्वाश की डोरी तनिक भी आभास नहीं था

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कविता

सोचा ना था

सोचा ना था सोचा ना था कि तुम ऐसे बदल जाओगे फोन करने पर आप कौन? कहकर आसानी से भूल जाओगे संभाले रखा हूॅ, मैं आज भी तुम्हारे साथ जुड़े हर यादों को बिते हर लम्हा और वादों को बिल्कुल धरोहर की तरह अब भी सब, वैसा का वैसा ही पर सोचा ना था कि

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कविता

पापा की शेरनी

पापा की शेरनी खुशनसीबी है तरु की जब तक रही पापा आपके साये तले पापा की परी नहीं शेरनी बनकर रही है, आपकी उंगली को पकड़कर कदम दर कदम बिना रुके चली है देखा पापा आपको खुशियों की खातिर अपनी खुशियों की आहूति पल पल आपको देते, ऐसे ही नहीं आदर्श अपना मानकर आपसे प्रेरित

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कविता

रोटी की परिभाषा

१- पिता को समर्पित हे पिता ! तुमको नमन, तुमको नमन, तुमको नमन हे पिता ! तुमको नमन, तुमको नमन, तुमको नमन   तुमसे है यह धरती गगन तुमसे है यह हंसता चमन तुमसे है यह मां की हंसी तुमसे है यह मेरा जन्म तुम सत्व में अस्तित्व में, निरपेक्ष में सापेक्ष में, तुम पुत्र

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कविता

बेज़ुबानों की आह

“बेज़ुबानों की आह” ~~~~~~~~~~ बिना सोचे समझे बेवजह ही जंगलों में आग लगा कर क्या साबित करना चाहता है इंसान क्या वो इस बात से अंजान है या फिर जानबूझ कर ऐसा कर रहा है। शायद उसे इस बात का रत्ती भर भी एहसास नहीं है कि कितने बेज़ुबान जीव उस आग की चपेट में

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लघुकथा

जो बीत गई वो अमिट इतिहास हुई।।

” सम्राट अशोक जन्मोत्सव पर विशेष” नमो बुद्धाय साथियों , इतिहास की विभिन्न धाराओं को समेटे हर एक पंक्ति आपसे बहुत कुछ कहना चाहती है । अतीत की झलक प्रस्तुत करती ये मेरी कविता अग्रिम आभार सहित आप सब के बीच प्रस्तुत है “जो बीत गई वो अमिट इतिहास हुई ” जो बीत गई वो

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कविता

जग में मिली है सफलता तुझे

जग में मिली सफलता तुझे , कुछ अच्छा कर दिखाने में , इस संसार में आये हो तू तो , कुछ अच्छा करो शीघ्र करो , जग में मिली है सफलता तुझे । आये हो इस जग में जब तू , जन्म हुआ इस दुनिया में , श्रम करो परिश्रम करो तू , जग में

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कविता

हे भारत के होनहार वीर – सपूतों

हे भारत के होनहार वीर – सपूतों हे भारत के होनहार वीर – सपूतों , उठो फिर से दोबारा वीर – सपूतों , मातृभूमि पुकारा है आपको सदा , रणभूमि खाली है मेरे वीर- सपूतों , युद्ध की तैयारी करो वीर – सपूतों , हे भारत के होनहार वीर – सपूतों । रणभूमि में दुश्मनों

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कविता

जय प्रकाश वर्मा ऊर्फ कलामजी की 2 कविताएं

हे भारत के होनहार वीर – सपूतों हे भारत के होनहार वीर – सपूतों , उठो फिर से दोबारा वीर – सपूतों , मातृभूमि पुकारा है आपको सदा , रणभूमि खाली है मेरे वीर- सपूतों , युद्ध की तैयारी करो वीर – सपूतों , हे भारत के होनहार वीर – सपूतों । रणभूमि में दुश्मनों

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कविता
पं.जमदग्निपुरी

मैं शिव हूँ

*मैं शिव हूँ* मैं हूँ सनातन सर्व हित पीता हलाहल| मैं अपमान सहता न करता कोलाहल|| मैं अपनों के हित जीता रहता हूँ मस्त मगन| मैं पूर्ण हूँ परिपूर्ण हूँ न छलकता हूँ छलाछल|| मैं शिव हूँ सत्य हूँ सबसे सरल भी हूँ| मैं भोला हूँ सबके हित पीता गरल भी हूँ|| मैं सबका हूँ

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कविता

रसाल सिंह ‘राही’ की प्रेम कविताएँ

प्रेम में बंध कर ~~~ कौन हो आप क्या लगते हो आप मेरे मुझे आपसे इतना प्रेम क्यों है कुछ नहीं जानता मैं मग़र अब आप की ही तरह मुझे इन पहाड़ों से प्रेम है मुझे झील झरनों से प्रेम है मुझे क़िताबों से प्रेम है और मैं ये भी जानता हूँ कि प्रेम एक

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कविता
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