माँ , खौंच्छा, कसूरवार,

अपने दोस्तों के साथ अवश्य साझा करें।

received_458933195102018_1.jpeg

#मां

कल बालकनी में, मादा कबूतर को
अपने नन्हों को सुरक्षित करते देखा
शांत भाव से अपने पंख फैलाकर
चूजों को आलिंगन किए देखा
वह बेजुबान पक्षी हर मुसीबत से
डटने को तैयार है
क्योंकि वह मां है
जब तक उसके बच्चे
उड़ना नहीं सीखते हैं
तबतक वह करूणामयी मां
उनकी पहरेदारी करती है
अपने अंश और अंग लगाकर
उनको जीवन देती है।।

एक मां ही ऐसा कर सकती है
अपने पर सारी विपदा लेकर
बच्चों को सुरक्षा देती है
क्योंकि मां जननी है
जन्मदात्री है ,बच्चों का
संसार में उड़ने तक अपने
पंख फैलाकर , आँचल में छिपाकर
हर बाधाओं से बचाती है।
जब स्त्री बच्चे को जन्म देती है
तब स्त्री मां बनती है
उसके अंदर की मातृत्व जाग उठती है।।
ममतामयी मां अपनी चिंता छोड़
सतत बच्चे के लिए जीती है।।

माँ, हर परित्याग कर
बच्चों को बड़ा करती है
जबतक माँ का साथ रहता
हर परेशानी आसान लगता है
क्योंकि माँ के पास
जादू की छड़ी होती है
जो हर मुसीबतों को
छूमंतर में दूर करती है
हर दुख को अपने ऊपर लेकर
बच्चों को खुश रखती है
मां तो मां होती है,
उसकी तुलना किसी से नहीं होती है।।
उसकी तुलना किसी से नहीं होती है।।
अंजू झा
जयपुर
।। खोईंछा।

विवाहित स्त्रियों को “खोईंछा” देने की प्रथा लगभग हर राज्य में प्रचलित है। भले ही अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नाम हो। हमारे बिहार में इसे” खोईंछा” कहते हैं। शायद उत्तर भारत में “गोद भरना” कहते हैं। यह परम्परा हमारी भावनाओं एवं धार्मिक महत्व का अनमोल मिश्रण है।जब भी कोई विवाहित स्त्री मायके जाती है और जब वापस आने लगती है तो माँ, भाभी, चाची या बुआ जो सुहागन हो उसके आंचल में बड़े स्नेह और भावुकता के साथ चावल, हल्दी की गांठ, दूर्वा, सुपारी एवं सामर्थ्यानुसार कुछ पैसे देती हैं।आंचल में दी जाने वाली वस्तुओं में स्थान विशेष के रिवाज के अनुसार भिन्नता हो सकती है। पर भावनाएँ वहीं रहती हैं।फिर एक दूसरे की मांग में सिंदूर लगाना, अश्रु पूरित नयनों से एक दूसरे को देखना, चावल के दो चार दाने माँ या भाभी के द्वारा निकालते हुए ये कहना कि फिर जल्द ही मायके आना, बेटियों को भावुक बना ही देता है।ग्रामीण समाज मे तो यह प्रथा आज भी जीवित है। गांवों मे तो कहते हैं बेटिया सब की साझी होती हैं। कही-कही तो बेटियों को “सबासिन “भी कहते हैं अर्थात जिसे सबसे आशा हो। ग्रामीण समाज मे बेटियों को चलते वक्त सिर्फ अपने ही घर से नहीं बल्कि गांव के सभी रिश्तेदारों के घर से खोईंछा मिलता है। कितनी भावनाएँ बंधी होती हैं उन चन्द सामग्रियों में। ससुराल से मायके जाते वक्त भी खोईंछा देने की प्रथा है। खोईंछा देने की प्रथा के पीछे बेटी-बहू की खुशहाली एवं उनके सौभाग्य की मंगलकामना का उद्देश्य ही हो सकता है। खोईछा में दी जाने वाली सामग्री यथा अक्षत, दूब , हल्दी की गांठ, सुपारी ,सिक्का का हमारे हिन्दू धर्म मे कितना महत्व है यह तो हम सब जानते ही है।देवी दुर्गा को भी नवरात्रि के मौके पर अष्टमी या नवमी को सुहागन स्त्रियां खोईंछा अवश्य देती हैं। कहते हैं नवरात्र में माँ दुर्गा मायके आती है अतः उन्हें खोईंछा दे कर विदा करते हैं। अर्थात यह परम्परा बहुत पुरानी है और आस्था से जुड़ी है।अब शायद यह प्रथा कुछ कमजोर होती जा रही है। आधुनिक युग की नयी पीढ़ी की महिलाएं इन रिवाजों से ज्यादा बंधी नहीं हैं। समय और सुविधा के अनुसार रीति-रिवाजों में कमी आयी है। पर समय की यही मांग है। पर हमारी पीढ़ी की महिलाएं इसे भूल नहीं सकती बहुत सी मधुर यादे जुड़ी होंगी। मायके जाने का एक अहम हिस्सा है खोईंछा। जिनके मायके में खोईंछा देने के लिये कोई स्नेहिल हाथ न हो वो बेटी बेचारी क्या करे। उसका आंचल तो खाली ही रह जायेगा।
रागिनी, बहुत दिन बाद अपनी नानी के घर किसी खास उत्सव में शरीक होने गई। उत्सव मना ,जब वह वापस आ रही थी उसके मन में बहुत दिन बाद नानी घर से खोईंछा लेने की उत्सुकता हो रही थी। वो पल हर स्त्री के लिए बहुत ही भावुक पर रहता जहां वह मायके वालों से दुआ आ आशीर्वाद की झोली भरकर अपना सुखी संसार बसाने जा रही होती है। अपने घर में उसे खोईंछा में भरी मंगलकामना काम आएगी। उसे बार बार बहुत पहले नानी के द्वारा दिए जाने वाली खोईंछा की बैचेनी याद आ रही थी। कैसे नानी दौड़ दौड़कर सारे चीजों की व्यवस्था की।उस समय का बयान नहीं किया जा सकता उसे केवल समेट कर रखा जा सकता है।
रागिनी तो इंतजार में थी तभी मामी ने आवाज दिया आ जा बेटा, खोईंछा भर दूं और आशीर्वाद देती हूँ धन पूत से भरी रहना। मंगल कामना भी कितने अनमोल शब्दों से। रागिनी को तो मंगलकामना का खजाना मिल गया। बड़ी खुशी से वापस आई।
मन ही मन सोच रही थी, भले ही युग बदलें, जमाना बदले पर मंगलकामना की जो परंपरा है, उसे कभी नहीं बदलना चाहिए। परंपरा हमारी धरोहर है ।। इसे जीवंत रखे।।
अंजू झा
जयपुर
कसूरवार
कल के अखबार में पढा
आज सामने खड़ी थी…

फटी चिथड़ों में अपनी इस्मत छिपाने की कोशिश में ,
क्योंकि उसके दामन में दाग लग गई थी
शरीर लहूलुहान था, मुंह में आवाज नहीं थी
ऐसा लग रहा था,दरिंदों ने दरिंदगी पार कर दिया था।
क्षण भर मैं विक्षुब्ध थी, घबराई हुई थी
क्यों रोज बेटियां दरिंदों का शिकार हो रही है
क्यों बेदाग दामन में दाग लग रही है
कसूरवार कौन?
हमारा समाज और कानून है।।

मैंने सहारा दिया, घावों पर मरहम लगाया
कारण पूछा , किसने तेरे दामन पर दाग लगाया है, जानकर थम सी गई।
बताया, जबसे बड़ी हो रही हूँ
लोंगों की नजर मेरे ही ऊपर है
सभी मेरे बेदाग दामन पर दाग लगाना चाहते,
आज उन दरिंदों ने सबके साथ मिलकर
मेरा शिकार किया,
मेरे दामन पर दाग लगाया दिया।।

कानून की मदद क्यों न ली?
क्योंकि मेरे पास आवाज नहीं थी..

कानून बनाने वाले को पता न था
दरिंदे ऐसी हाल करेंगें की बोल भी नहीं पाएगी
शिनाख्त उसके दामन पर लगे दागों का नहीं,
गवाही की होगी।
न जानें कितनी मासूम बेटियां
आए दिन इन भेड़ियों का शिकार होती है।
हर क्षण अपने दामन बचाने में लगी रहती है
पढ़ी लिखी होने के बाद भी डरी डरी सी रहती है।

अंजू झा
जयपुर

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Shopping Cart
Scroll to Top