लघुकथा:_खोपड़ियों💀 से वार्तालाप🙀
कल्पनाओं की दुनिया में सत्य की एक झलक
अचानक से तेज हसीं की और कोलाहल की आवाज कानों में पड़ी थोड़ी डरावनी सी आहट के साथ इसे सुन कर मैं कांप गई क्या था कुछ समझ नहीं आया कि तभी अचानक असंख्य मानव खोपड़ियों ने मुझे घेर लिया और घूमने लगी मेरे चारों तरफ अर्द्ध रात्रि का समय था और ये डरावना सा दृश्य मेरी सांसे उखड़ रही थी भीषण ठंड में पसीने की बूंदे जलधारा सी माथे से बह रही थी
मैने घबरा कर आंखे बंद कर ली सोच कर कि मेरा डर मेरा वहम है कि तभी असंख्य डरावनी हसीं ने कानों में आकर कहा आंखों को बंद कर भी लोगी पर कानों को कैसे बंद करोगी और कानों को बंद कर भी लोगी तो हृदय में उत्पन्न भावों को कैसे अनसुना करोगी
खोपड़ियों की बाते समझ पाना मुश्किल सा हो रहा था डर के वसीभूत होकर जैसे मेरी सारी बुद्धि कही खो सी गई की तभी एक खोपड़ी ने शांत स्वर में कहा डरो नहीं खुद को शांत करो और मेरे कुछ सवालों को पहेलियों को सुलझाओ मैने खुद को थोड़ा शांत किया और उनकी बातों को सुनने के लिए गर्दन हिला कर हा में सहमति जताई क्यूंकि जुबा डर के कारण बंद हो गई थी
एक खोपड़ी ने आगे आकर एक प्रश्न पूछा
हम असंख्य मानव खोपड़ियां है इनमें से बताओ कोन अमीर कोन गरीब , कौन ब्राह्मण कौन शूद्र,कौन पुरुष,कौन स्त्री ,कोन किन्नर मै उनके सवालों को सुनकर सोचने लगी कैसा विचित्र सवाल है भला ये सब तो एक से दिख रहे है मै कैसे इनमें भेद कर पाऊंगी
और मैने खोपड़ी से पूछा कैसा सवाल है तुम सब तो एक से हो मै कैसे जन पाऊंगी कोन किसकी खोपड़ी है मैने बड़े शांत स्वर में कहा अब तक मेरा डर खत्म हों चुका था और मैं सामान्य हो चुकी थी
तभी दूसरी खोपड़ी आकर बोली तो ये बताओ कि जीते जी शरीर पर एक आवरण लेकर जब हम घूम रहे थे तब ये भेद क्यू था ?अब जब शरीर त्याग दिया तो भेद करना मुश्किल हो गया तो क्या भेद मांस के टुकड़ों का था रंग रूप का था
कुल ,धन संपत्ति के हिसाब से आदर सत्कार करना श्रेष्ठ है या व्यवहार और ज्ञान और बुद्धि से युक्त होने पर ?
ये भेद क्यू है जब हम भीतर से एक ही है सब मरण उपरांत एक ही तरह मिट्टी में समाहित होने वाले है, आत्मा सबकी एक सी ही है,तो फिर प्रेम पूर्वक आदर का भाव सभी के लिए क्यू नहीं रख सकते मन में कैसा द्वेष कैसी घृणा कैसा अभिमान
कुछ जीवन के सत्य से अवगत करा कर एकाएक सारी खोपड़ियां अदृश्य हो गई और उस अर्धरात्रि के अंधकार में भी रात्रि पूनम के सुकोमल चंद्रमा की सी रोशनी से प्रकाशित हुई उसी तरह मेरे अंतरमन के गुरूर के अभिमान के अंधेरे को भी वो रोशन कर गई
निरंजना डांगे
बैतूल मध्यप्रदेश
स्वरचित मौलिक