कहते हैं, सोने को जितना अधिक आग में तपाओ, वह उतना ही अधिक चमकता है। ठीक उसी प्रकार हमारी ज़िंदगी भी है। ज़िंदगी के लिए आसान राह चुनना वास्तव में चुनौतियों को न्योता देना है, जबकि चुनौतियों का सामना करने से राह अपने आप आसान हो जाती है।
कृष्णा नगर के पंडित श्यामाचरण जी की कहानी भी कुछ इसी प्रकार की है। आइए, पढ़ते हैं— पंडित श्यामाचरण बारातियों के स्वागत में हाथों में फूलों की माला लिए जीवन के अमृतमय आनंद का एहसास कर रहे थे, क्योंकि आज उनकी लाडली बेटी श्रद्धा की शादी जो थी
अचानक, पंडिताइन भागते हुए आईं और घबराहट भरे स्वर में बोलीं—
“सुन रहे हो जी, श्रद्धा के बाबूजी!
जरा इधर आइए, आइए ना इधर!”
पंडित श्यामाचरण चकित होकर बोले— “कहो, क्या हुआ? बारात सामने आ रही है, किस बात की घबराहट है?”
पंडिताइन चिंतित स्वर में बोलीं— “श्रद्धा का रो-रोकर बुरा हाल हो गया है!”
पंडित जी घबरा गए— “ऐसा क्या हो गया?”
पंडिताइन बोलीं— “आपकी लाडली, जिसे आपने सिर चढ़ा रखा है, कह रही है कि मैं यह शादी नहीं करूंगी!”
यह सुनते ही पंडित श्यामाचरण जी के पैरों तले ज़मीन खिसक गई, क्योंकि बारात दरवाज़े पर खड़ी थी।
बरामदे से भीतर जाते हुए वे श्रद्धा से बोले— “बेटा, यह कैसी बातें कर रही हो? दरवाजे पर बारात खड़ी है। बताओ तो सही, आखिर बात क्या है?”
श्रद्धा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। वह चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। उधर, बारात दूल्हे को लेकर गाजे-बाजे के साथ द्वारचार के लिए आ चुकी थी। पंडित श्यामाचरण का हृदय आशंका से धड़कने लगा। घर के लोग भी हैरान थे और मेहमानों में कानाफूसी शुरू हो गई। श्रद्धा की मां झुंझलाकर बोलीं— “कितने दिनों से समझा रही हूं, पर यह मानने को तैयार ही नहीं है! अब दरवाजे पर बारात खड़ी है और यह अपनी ज़िद पर अड़ी है!”
पंडित श्यामाचरण ने पत्नी को समझाते हुए कहा— “देखो श्रद्धा की मां! जब लड़की अपने माता-पिता का घर छोड़ती है, तो वह भीतर से टूट जाती है। ऐसे समय में उसे डांटने-फटकारने की नहीं, बल्कि संभालने की ज़रूरत होती है।”
पंडिताइन गुस्से में बोलीं— “यह सब आपके ज़रूरत से ज्यादा लाड़-प्यार का नतीजा है! अब संभालिए अपनी लाडली को!”
पंडित श्यामाचरण श्रद्धा के पास जाकर बोले “बेटा, बताओ, आखिर बात क्या है?” “दरवाजे पर बारात आ चुकी है। जल्दी बोलो, क्या कहना चाहती हो?”
श्रद्धा सिसकते हुए बोली— “बाबूजी… बाबूजी… मैं आप दोनों को छोड़कर नहीं जा सकती। मैं अकेले नहीं रह सकती। मुझे शादी नहीं करनी है। लौटा दो बारात। मुझे आप दोनों के साथ ही रहना है।
मैं शादी करके रमा दीदी की तरह जलकर मरना नहीं चाहती!”
यह कहते हुए श्रद्धा ज़मीन पर गिरने लगी। पंडित श्यामाचरण ने उसे संभालते हुए कहा— “बेटा, मैं समझता हूं तुम्हारी मन की बात।
रमा के साथ जो हुआ, वह बहुत बुरा था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हर लड़की की ज़िंदगी वैसी ही होगी।”
फिर वे श्रद्धा को समझाने लगे— “देखो बेटा, ज़िंदगी बड़ी आसान होती है, लेकिन लोग उसे कठिन बना देते हैं, जिससे राहें मुश्किल हो जाती हैं। हम अक्सर अपने गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही रास्ते की कठिनाइयों के बारे में सोचकर रुक जाते हैं। इसी डर की वजह से सपने अधूरे रह जाते हैं।”
उधर, बारात दरवाजे पर इंतजार कर रही थी। पंडित जी की बातें सुनकर श्रद्धा की आंखें खुल गईं। उसने खुद को संभाला और जीवन की राह को आसान बनाने के लिए चुनौतियों का सामना करने का निश्चय किया।
अब बाबूजी भी हर्षित थे। बारातियों का ज़ोरदार स्वागत किया गया, और श्रद्धा की विदाई हो गई। पंडित श्यामाचरण की आंखों में आंसू थे, लेकिन ये आंसू दुख के नहीं, बल्कि खुशी के थे— “मेरी लाडली बेटी श्रद्धा का घर-संसार बस रहा था!”
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