राजेश कुमार बौद्ध । सामाजिक पीड़ाएं जब दबती है तो आंसू व सिसकियों में तब्दील हो जाती हैं, यहीं पीड़ाएं जब उभरती है तो जन आन्दोलन का रूप धारण करती है। और जब यही पीड़ाएं शब्दों का रूप लेती है तो साहित्य बन जाती हैं, और ” जूठन ” जैसी कालजयी रचना का जन्म होता हैं। ऐसे ही एक शख्सियत ” ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ” जिन्होंने अपनी सामाजिक पीड़ाओ को शब्दों में उकेर कर तत्कालीन मानसिक बिमार समाज की तस्वीर को अपने रचनाओं के जरिए देश-विदेश के लोगों के मानस पटल पर रखा और उसे झकझोरने का काम किया।
उनकी आत्मकथा “जूठन ” में किस तरह लंबे समय से भारतीय समाजिक व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर खड़ी ” स्वच्छकार जाति ” को सवर्णों से मिली चोट कचोट के बीच परिस्थितियों से संधर्ष करता हुआ दलित आन्दोलन का या दलित चेतना का दहकता हुआ दस्तावेज है।
सफाई देवता – भारतीय समाज में अस्पृश्यता की इन धारणाओं के चलते भंगियों को तकलीफदेह, अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ता है। नासिक ( महाराष्ट्र) नगरपालिका की वार्षिक रिपोर्ट 1884-85 में बताया गया है-” शौचालय रात को ही साफ किए जाते हैं और रातों-रातों मैला डिपो में पहुँचा दिया जाता है। भंगियो के मनहूस हुलिए को देखना भी लोगों को गवारा नहीं है। अतएव मैला -सफाई का काम रात के अंधेरे में ही करवाना पड़ता था। हम तो यह सोचकर ही दंग रह जाते हैं कि सँकरी, तंग, उबड़-खाबड़ गलियों से गुजरते हुए रात के अँधेरे में मैला ढोने वाले उन लोगो पर क्या गुजरती होगी?’
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता संदियों का संताप ही नहीं, उनका सारा साहित्य इस बात की गवाही देती हैं कि वे यातना, संघर्ष और उम्मीद के कवि और लेखक हैं।यातना, संघर्ष और उम्मीद की उनकी यह यात्रा व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि उस पूरे समुदाय की है, जिसमें उन्होंने जन्म लिया। जन्म लेते ही जिसकी नियति तय कर दी गई। वे आजीवन उस नियति को बदलने के लिए संघर्ष करते रहे। इसी नियति की ओर इशारा करते हुए वे अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में लिखते हैं कि “ जाति में पैदा होते ही व्यक्ति की नियति तय कर देती है। पैदा होना व्यक्ति के अधिकार में होता, तो मैं भंगी के घर पैदा क्यों होता? ” लेकिन उन्होंने अपनी नियति को बदलने की चुनौती को स्वीकार किया और इस प्रक्रिया में हिंदी साहित्य की नियति अपनी कविताओं, कहानियों, नाटकों और आत्मकथा ‘जूठन’ से बदल दिया।
ओमप्रकाश वाल्मीकि का हिंदी साहित्य में प्रवेश लंबे समय से सुप्त पड़े ज्वालामुखी के फूट पड़ने जैसा था। जिसकी आंच पूरे हिंदी साहित्य ने महसूस की। उन्होंने हिंदी पाठकों को उस जीवन से रू-ब-रू कराया जिससे वह अब तक अनभिज्ञ और अनजान था। इस यथार्थ की अभिव्यक्ति की दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं। पहली जो पाठक यथार्थ के इस रूप से अपरिचित थे, उन्हें यह बिजली के झटके की तरह लगा। दूसरा जो पाठक इस यथार्थ की यातना को जी रहे थे, उन्हें अपनी भावना- संवेदना की अभिव्यक्ति लगी। प्रचलित परिपाटी के अभ्यस्त हिंदी साहित्य को ओमप्रकाश वाल्मीकि के साहित्य को स्वीकार करने में काफी देर लगी। स्वीकृति के बाद भी सारिका ने 10 वर्षों तक उनकी कहानी ‘जंगल की रानी’ को लटकाए रखा। अपनी आत्मकथा जूठन के पहले भाग में इस पूरे प्रसंग पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि “साहित्य के बीच भी एक सत्ता है, जो अंकुरित होते पौधों के कुचल देती है।” पहली बार राजेन्द्र यादव ने हंस में उनकी कहानियां प्रकाशित करना शुरू किया। जब एक बार ओमप्रकाश वाल्मीकि पाठकों के सामने अपनी रचनाओं के साथ आए तो पाठकों ने उन्हें हाथों – हाथ लिया।
उनकी आत्मकथा जूठन की लोकप्रियता का आलम यह है कि 1997 में पहली बार प्रकाशित होने के बाद उसके पहले खंड के अब तक तेरह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। दूसरा खंड 2015 में प्रकाशित हुआ। उसके भी चार संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी आत्मकथा का देश- दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। सच यह है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा ‘जूठन’ दलितों में भी दलित जाति में पैदा होने की यातना और उससे उबरने के संघर्ष का सुलगता दस्तावेज है। यह एक व्यक्ति की आपबीती होते हुए भी एक पूरे-के-पूरे समुदाय की आपबीती कहानी का जीता-जागता दस्तावेज बन जाता है। आप जो भी इस आत्मकथा से गुजरता है, उसे महसूस होता है कि जैसे वह धधकते ज्वालामुखी में कूद पड़ा हो। यह आत्मकथा भारतीय समाज के उन सारे आवरणों को तार-तार कर दिया, जिनकी ओट में सच्चाई छिपाई जाती थी और महान भारतीय संस्कृति का गुणगान किया जाता था। ‘जूठन’ ने हिंदी के वर्ण- जातिवादी प्रगतिशीलों और गैर-प्रगतिशीलों, दोनों के सामने एक ऐसा आईना प्रस्तुत कर दिया, जिसमें वे अपना विद्रूप चेहरा देख सकते थे। यथार्थ के नाम पर हिंदी साहित्य में परोसे जा रहे बहुत-से झूठ को भी यह आत्मकथा बेनकाब करती है और बताती है कि भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से के जीवन- यथार्थ का न तो हिंदी के द्विज साहित्यकारों को बोध है, न उसकी अभिव्यक्ति वे कर सकते हैं। इस आत्मकथा की पहली पंक्ति ही इन शब्दों से शुरू होती है- “दलित-जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभव-दग्ध हैं। ऐसे अनुभव, जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। ऐसी समाजिक- व्यवस्था में हमने सांस ली है, जो बेहद क्रूर और अमानवीय है।” (वही, पृ.-7)
उनके तीन कहानी संग्रहों ‘सलाम’, ‘घुसपैठिए’ और ‘सफाई देवता’ कहानियों पाठकों-आलोचकों के सामने एक ऐसी दुनिया प्रस्तुत की, जिससे वे अब तक अनजान थे। इसमें कोई शक नहीं है कि इस दुनिया का यथार्थ विचलित कर देने वाला और झकझोर देने वाला था। उनकी कहानियों की अंतर्वस्तु और अभिव्यक्ति शैली, सच को इस तरह सामने लाती हैं कि पाठक का पूरा वजदू हिल उठता है। वह इस सच को सच मानने को तैयार नहीं हो पाता और इसे झूठ मानकर खारिज भी नहीं कर पाता। वह बेचैन और उद्विग हो उठता है।
वाल्मीकि जी की कविताएं पाठकों को एक साथ कबीर और रैदास दोनों की याद दिलाती
