लिखना चाहता अगर समाज को, मैं
तो,
लिख देता सारे अच्छाइयों को कुछ चंद आधे पन्ने पर तनिक सा स्याही समाप्त होता बस,
क्योंकि, बहुत कम है अच्छाई इस समाज में…
लिखा इसलिए नहीं, क्योंकि
पल भर में ही समाप्त हो जाते पन्ने और स्याही मेरे
अगर करता मैं वर्णन बुराईयों का,
शायद बहुत बुराइयां है इस समाज में…
अगर जाति को लिखता मैं
तो,
चार शब्दों में ही पूरा हो जाता
ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शुद्र…
लिखा इसलिए नहीं, अछूत को
कि, केवल चार पांच ही कलम है और पन्ने भी बहुत कम है मेरे पास
लगभग दो हजार, जो कम पड़ जाएंगे अछूतों के वर्णन में…..
अगर लिखता मैं धर्मों का गुण,
तो,केवल तीन शब्दों में पूरा हो जाता सत्य,सेवा और सद्भावना….
धर्म को इसलिए नहीं लिख पाया कि,
शायद कर्ज लेना पड़ता पन्ने और कलम लिए,
जिसमें भी नहीं समा पाता
हिंदू, मुस्लिम,ईसाई और तमाम धर्मों का वर्णन…
मैं चाहता तो लिख देता चार शब्दों में ही मानवता का सार,
न्याय,धर्म और प्यार….
इसलिए नहीं किया मैं वर्णन मानवों के भेस में दानवों का,
इसलिए मैंने कभी नहीं किया उन दानवों का वर्णन,
शायद अपवित्र हो जाएंगे मेरे स्याही और पन्ने
उनके वर्णन से…
अगर मैं लिखता स्त्रियों को,
तो, केवल तीन शब्दों में लिखता
जननी, जन्मदात्री और जन्मभूमि…
लेकिन, लिखा इसलिए नहीं कि स्त्रियों के महागाथा नहीं समा पायेगी मेरे इन छोटे पन्नों में…
यदि पिताजी को लिखता तो, केवल एक शब्द में ही लिखता “ईश्वर”…
कभी लिखा इसलिए नहीं कि कोई तुच्छ मानव क्या ही वर्णन करेगा किसी “ईश्वर” का…
जीवन को लिखना होगा यदि मुझे तो,
केवल दो शब्दों में
सेवा और प्रेम लिखूंगा…
मृत्यु को कभी लिखा नहीं इसलिए कि,
कभी नहीं मरती है आत्मा….
यदि खुद को लिखूं मैं तो केवल एक शब्द में,
शून्य लिखूंगा…
खुद को अनन्त नहीं लिख पाऊंगा क्योंकि, “ईश्वर”
नहीं हूं मैं….!!!!
