स्क्रीन की कीमत
शहर की चमचमाती गलियों में रहता था शत्रुघ्न, एक युवा जिसके हाथ में हमेशा उसका स्मार्टफोन रहता। सुबह से रात तक उसकी दुनिया उसी 6 इंच की स्क्रीन में सिमटी थी। नौकरी की ईमेल, दोस्तों के मैसेज, और सोशल मीडिया की चकाचौंध—उसके लिए यही सब कुछ था। घर में माँ-पिताजी अक्सर उससे बात करने की कोशिश करते, पर शत्रुघ्न का जवाब हमेशा एक ही होता, “बस दो मिनट, अभी खत्म करता हूँ।”
एक दिन, गाँव से उसकी दादी आईं। उनकी आँखों में पुराने दिनों की सादगी और अपनापन था। दादी ने शत्रुघ्न से कहा, “बेटा, आज शाम मेरे साथ छत पर चल, तारे देखते हैं।” शत्रुघ्न ने हँसते हुए कहा, “दादी, तारे तो मेरे फोन में भी दिखते हैं, नासा की लाइव स्ट्रीम देख लूँगा।” दादी चुपचाप मुस्कुराईं और चली गईं।
उसी रात, अचानक बिजली चली गई। शत्रुघ्न का फोन भी बैटरी खत्म होने से बंद हो गया। अंधेरे में बेचैन होकर वह छत पर गया, जहाँ दादी पहले से बैठी थीं। आसमान में तारे चमक रहे थे, और हल्की हवा चल रही थी। दादी ने धीरे से कहा, “ये तारे स्क्रीन से बाहर भी जिंदा हैं, बेटा। इनके साथ वक्त बिताओ, तो पता चलेगा कि जिंदगी कितनी बड़ी है।”
शत्रुघ्न कुछ देर चुप रहा। फिर उसने दादी का हाथ थामा और बोला, “आप सही कहती हैं। कल से मैं फोन कम इस्तेमाल करूँगा।” दादी ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा, “बेटा, जिंदगी स्क्रीन की कीमत से कहीं ज्यादा है।”
उस रात के बाद, शत्रुघ्न ने फोन को अपनी जिंदगी का मालिक बनाने की बजाय उसे सिर्फ एक साधन बनाया। वह माँ-पिताजी के साथ हँसता, दादी की कहानियाँ सुनता, और कभी-कभी छत पर तारे देखने भी जाता।
