स्त्री का आत्मसम्मान के लिए संघर्ष

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निरंजना डांगे

स्त्री की उड़ान अक्सर चुभती है कुछ नजरो को
उसका खुद के आत्मसम्मान के लिए लड़ना तूफान सा मचा देता है जैसे खामोश सरोवर में किसी ने अपनी इच्छा का एक सिक्का उछाल कर उसमें हलचल मचा दी हो,
जब तक वो खामोश हों झेलती है सब कुछ
वो एक अच्छी बहु ,बेटी,ग्रहणी कहलातीं है
उसका खुद के लिए किया संघर्ष
उठा देता है सौ उंगलियों उसके ऊपर
उसके चरित्र का आंकलन किया जाता है उसके सहनशक्ति की सीमा से ,उसका गलत को भी नतमस्त हो कर स्वीकारने से ,अपने ऊपर हो रहे अन्याय को भी चुपचाप सह लेने से
,प्रताड़ना के कई स्वरूप है शारीरिक प्रताड़ना, मानसिक प्रताड़ना,सिर्फ हाथ उठा कर शारीरिक प्रताड़ना ही प्रताड़ना की श्रेणी में नहीं आता
इससे बड़ी है मानसिक प्रताड़ना जो इंसान के अंतरमन को प्रताड़ित करती है जिससे उभर पाना मुश्किल हो जाता हैं ऐसे स्थिति में भी
क्या स्त्री का मुख बधिर होना जरूरी है,झूठ के आगे नतमस्तक होना जरूरी है ?
क्या सहनशक्ति की पराकाष्ठा पर भी उसको चुप्पी साधना जरूरी है ?
अपनी मानसिक स्थिति को
पल पल तार होते देख भी यथार्थ को अनदेखा करना जरूरी है ?
सिर्फ अच्छा बनने के लिए
हर पल संघर्ष करते हुए भी
खुद को भुलाना जरूरी है ?
भला क्या उसकी मनोदशा खराब होने के बाद वो एक स्त्री रहेगी ?
वो ना एक स्त्री रहेगी ना एक इंसान वो हो जाएगी एक अनभिज्ञ सी पहेली जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं होगा
तो जो पूरा घर संभाले रखती है क्या उसकी विक्षिप्त स्थिति में उसे संभाल पाएगा वो पुरूष वो परिवार जो उसके सजग स्वरूप तक में उसके साथ नहीं है
ऐसी स्थिति में पहुंचने से पहले खुद के लिए आवाज उठाना एक स्त्री का पहला धर्म है एक कदम है खुद को खोने से बचाने की ओर

शायद मेरा ये लेख जीवन के उस कटु सत्य को उजागर करता है जहां स्त्री को कह तो दिया जाता है उड़ने की आजादी है पर उसके एक कदम आगे बढ़ाते ही उठ जाते है सवाल बंध जाती है बेड़ियां
कुछ झूठी अपवाहों की ,कुछ बेतुके सवालों की जहां समय सीमा तय है एक स्त्री के लिए जहां एक औरत के लिए आज भी सवाल उठते है
जो घेरे हुए है उसको हर पल
कहा जा रहे हो ,क्यू जा रहे हो कब लौटेगी ,
ये सवाल चिंता के भाव से उठे तो सुकून और खुशी देते है पर शंका की भावना से उठे तो असहनीय पीड़ा देते है
तो ये कैसी आजादी है जो सिर्फ बातो में है

बेड़ियां आज भी है स्त्री के पैरो में जो दिखाई नहीं देती पर उसे जकड़ लेती है
लोगों के तीखे नजरो के अनकहे शब्दो से तार तार होता है उसका आत्मसम्मान उसका मनोबल

इतना आसान नहीं है एक स्त्री का सपने देखना और उसको हासिल करना उसे हर कदम पर लड़ना पड़ता है एक सोच से ,एक नजर से,एक आरोप से,लोगो के बीच चलती हुई बेतुकी सी बातों से,
चरित साफ रख कर भी झेलने पड़ते है छीटें कुछ दकियानुसी बातो के ,कुछ अपवाहों के
जो पड़ते है उसके अंतरमन पर
उन छीटों के वो निशान उसे बार बार विचलित करते है उसे उलझन में डाल देते है
एक शत्रु के रूप में प्रहार करते है उसके मनोबल पर
आत्मसम्मान पर इज्जत पर

इन सब से लड़ते हुए कदम बढ़ाना बहुत कठिन है बिलकुल वैसे जैसे शूल पर चलते हुए जख्मी होते हुए भी अपनी मंजिल की ओर बढ़ना,

पर अगर चाहत सच्ची हो तो इन सब से लड़ कर बढ़ना होगा आपको आपके पथ पर
आप अगर सच्चाई के पथ पर हो तो झूठ एक ना एक दिन खुद धराशाई हो जाएगा

और अक्सर कहा जाता है:_

जब आपकी आलोचना होने लगे तो समझो कि आप तरक्की के पथ पर हो

कमल को भी खिलने के लिए खीचड़ के बीच रहना होता है

चांद तारों को भी चमकने के लिए अंधेरी रात से गुजरना होता है

तभी वो अपना वर्चस्व रच पाते है और अलग पहचान बनाते है

निरंजना डांगे

✍️मै लेखनी मेरे सपनो की
निरंजना डांगे
बैतूल मध्यप्रदेश

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