आज भी यह रहस्य ही लगता है कि कुछ लोग किसी की सराहना या प्रशंसा करने में कंजूसी क्यों करते हैं! किसी के लिए प्रशंसा के दो शब्द बोलना उन्हें दो कुंतल वजन उठाने से भी ज्यादा भारी क्यों लगता है ? ऐसे लोगों से जल्दी किसी की प्रशंसा नहीं होती और औपचारिकतावश करनी पड़ जाए तो प्रशंसा की जगह कमियां बताकर उसे हतोत्साहित कर आनंद का अनुभव करेंगे। इस संदर्भ की व्याख्या पर विचार करें तो एक प्रसंग याद आता है। एक परिचित की बेटी का राज्य प्रशासनिक सेवा में चयन हुआ । घर- परिवार के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी और सभी बेहद खुश थे। सगे-संबंधी, मित्र – रिश्तेदार, आस-पड़ोस के सभी लोग बधाई देने पहुंच रहे थे और वे हर्षित भाव से बधाइयां स्वीकारते हुए सबका मुंह मीठा करा रहे थे। बधाइयों के औपचारिक- अनौपचारिक माहौल के बीच परिचित के एक निकट संबंधी पधारे। उन्होंने बधाई देने की औपचारिकता भी नहीं निभाई और आते ही परिचित की बेटी से सवाल किया कि तुम्हें कौन-सी रैंक आई है, तो उसने खुश होते हुए जवाब दिया- ‘मेरा पहला प्रयास ही था । फिर भी सत्तानबेवीं रैंक आई है। खुद से ही पढ़ाई की है मैंने।’ वे अंकल अफसोस करने लगे, ‘ओह, फिर तो अधीनस्थ सेवा में नंबर आएगा तुम्हारा । मेरे एक मिलने वाले का बेटा पंद्रहवीं रैंक लाया है। उसका प्रशासनिक सेवा में जाना तय है। खैर, अगली बार कोशिश करना। ‘ इस तरह की
अवांछित सलाह सुनकर खुशियों से खिलखिलाता परिचित की बिटिया का चेहरा मुरझा गया और परिजन भी बहुत दुखी हुए, लेकिन वे सबको दुखी करते हुए संतुष्ट भाव से वहां से निकल लिए। बाद में परिचित से पता चला कि उनके बेटे ने यह प्रतियोगी परीक्षा चौथी बार दी थी, लेकिन वह एक बार भी साक्षात्कार में बुलाने जितने अंक लाने में असफल रहा।
गौर किया जाए तो ऐसी रुग्ण मानसिकता के लोग हमें अपने आसपास मंडराते दिख जाएंगे। दूसरों की खुशियां और उपलब्धियां देख उन्हें ईर्ष्या होती है। उन्हें लगता है जैसे दूसरों ने उनके घर डाका डालकर यह हासिल किया है। अपनी अकुशलता, अक्षमता, लक्ष्य के प्रति उदासीनता, अव्यवस्थित दिनचर्या, अनुशासनहीनता जैसी अपनी कमियां दूर कर स्वयं में सुधार करने की वे जरूरत नहीं समझते, क्योंकि वे स्वयं को, किसी तरह की कमियों से मुक्त, सर्वगुणसंपन्न मानते हैं और दूसरों को कमियों की खान मानते हुए उन पर दोषारोपण कर तृप्ति का अहसास करते हैं ।
‘कमी – प्रिय’ ऐसे लोगों का कोई भी प्रिय नहीं होता। उन्हें सबमें ही कोई न कोई कमी नजर आती है। अपने घर में भी वे हर किसी में नुक्स निकालने में लगे रहते हैं। घर का नन्हा बच्चा अगर हाथी का चित्र बनाकर उल्लसित भाव से उनके सामने दिखाएगा तो उसे शाबाशी देने की जगह ऐसा व्यक्ति कहेगा कि ‘हाथी की सूंड इतनी छोटी होती है क्या… तुम्हारी टीचर कुछ सिखाती भी है या वह भी ढपोरशंख है तेरी तरह।’ बच्चा रोनी सूरत बनाए खिसक जाएगा और वे मंद-मंद मुस्कुराएंगे। पत्नी द्वारा बनाए खाने में कमी निकाले बिना उन्हें खाना हजम नहीं होता । सब्जी में कभी मिर्च- नमक ज्यादा बताएंगे, कभी कम । रोटी पर जलने के हल्के से निशान दिख गए, तो फरमाएंगे कि ‘रोटी पर चांद-तारे चमचमाहट कर रहे हैं। जली रोटी बनाने में महान हो तुम देवी।’ इस तरह कमतर ठहराना या खिल्ली उड़ाना उनके स्वभाव में घुला होता है।
राजस्थानी की एक लोककथा है। एक नगर सेठ था। सबसे बड़ा धनी। कई नगरों में व्यापार । सब जगह बड़ी-बड़ी हवेलियां | सैकड़ों बीघा खेत-खलिहान । बीसों नौकर । इतना सब होते भी वह हर समय दुखी रहता । वैद्य-हकीमों की दवा भी बेअसर । एक बार एक महात्मा भ्रमण करते हुए उस नगर में पधारे। लोगों ने सेठजी की बीमारी बताई और उन्हें स्वस्थ करने का निवेदन किया। शाम को महात्मा हवेली पहुंचे तो सेठ अपने कमरे की खिड़की से बाहर नजर गड़ाए थे । घास-फूस की एक झोपड़ी में रह रहा मजदूर अपनी पत्नी और पुत्र-पुत्रियों के साथ हंस – खेल रहा था । महात्मा ने पूछा, ‘परमात्मा का दिया तुम्हारे पास सब कुछ है, उसके बाद भी तुम दुखी क्यों हो भक्त ? ” सेठ ने उसी झोंपड़ी की ओर देखते हुए कहा, ‘अभावों में भी वे सुखी क्यों हैं, यह देखकर मैं दुखी रहता हूं महाराज।’ महात्मा ने कहा, ‘जो दूसरों को सुखी देखकर दुखी होता है, उसका दुख परमात्मा भी दूर नहीं कर सकता भक्त ।’ और महात्मा वहां से विदा हो गए। सेठ का दुख वैसा ही रहा ।
दूसरों को सुखी देख दुखी होने की मानसिकता हमें कभी भी सुख, खुशी, आनंद और उल्लास नहीं दे सकती। हमें हमेशा दुखी ही रखेगी। हमारी यह नकारात्मक सोच हमें बेवजह दूसरों का आलोचक बनाती है, दूसरों में अच्छाइयां नहीं, कमियां ढूंढ़ती है, परिजनों और मित्रों के प्रति भी संदेह – संशय के भाव पैदा करती है। हम स्वयं दुखी रहते हैं और दूसरों को भी दुखी करते हैं। दूसरों को खुश और आनंदमय देखकर हमारे मन में भी खुशी और आनंद की अनुभूति होनी चाहिए । तब ही हमारा जीवन आनंदमय रहेगा। कमियां हर किसी में होती हैं, हमारे भीतर भी होंगी, लेकिन हमें कमियां नहीं, अच्छाइयां देखनी चाहिए। कमियों और अच्छाइयों के साथ ही हम हैं। सकारात्मक भाव रखते हुए हमें कमियों की अनदेखी करनी है और अच्छाइयों से सीख लेनी है। कहा भी गया है- ‘सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय । ‘

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब