सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु आचार्य चाणक्य थे। उन्होंने एक बिल्ली पाल रखी थी, जो बहुत ही समझदार और स्वामिभक्त थी। आचार्य चाणक्य ने उस बिल्ली को दुनिया की सबसे उच्च कोटि की शिक्षा प्रदान की और उसे सभी प्रकार के नीति-नियम सिखाए। रणभूमि में वह बहुत ही अच्छा प्रदर्शन कर रही थी।
समय बीतता गया, और अब वह बिल्ली पूरी तरह दक्ष हो चुकी थी। आचार्य चाणक्य के हर इशारे का मतलब वह तुरंत समझ जाती थी। रणभूमि में वह सौ-सौ शत्रुओं पर अकेली भारी पड़ने लगी थी। आचार्य चाणक्य की हर एक विजय में उसका अमिट योगदान होने लगा था।
एक दिन आचार्य चाणक्य ने विचार किया कि क्यों न इस बिल्ली की परीक्षा ली जाए? मुझे भी यह पता चलना चाहिए कि यह बिल्ली कितनी स्वामिभक्त है।
अगले ही दिन, आचार्य चाणक्य ने अपने कुछ साथियों को आदेश दिया कि जहां बिल्ली रहती थी, वहां उसकी झोपड़ी में एक दही का मटका रखवा दिया जाए—वह भी बिना ढके हुए। शाम को जब बिल्ली अपनी झोपड़ी में लौटी, तो यह देखकर दंग रह गई। मानो किसी भूखे शेर को शिकार दिख गया हो और वह आखेट करने के लिए टूट पड़ा हो। बिल्ली के मन में भी सबसे पहले यही विचार आया। वह खुशी से झूमने लगी। फिर जब उसने ध्यान से दही को देखा और मटके पर टूट पड़ने की सोची, तब तक उसे आचार्य चाणक्य की दी हुई शिक्षा याद आ गई—
“गुरु के आदेश के बिना कोई भी वस्तु या भोजन को हाथ लगाने से उस व्यक्ति का व्यक्तित्व मर जाता है।”
अर्थात, बिल्ली के लिए गुरु का आदेश सर्वोपरि था। लेकिन आखिरकार वह भी तो एक जीव थी। उसका मन बार-बार दही खाने को उत्सुक हो रहा था। वह मटके के पास जाती और उसे खाने का प्रयास करती, पर फिर खुद को रोक लेती।
बार-बार यह विचार उसके मन में आता रहा। अंततः उसने अपने आप से प्रश्न किया— “यदि मैं आज दही खा लेती हूँ, तो कुछ पल के लिए बहुत आनंद मिलेगा, लेकिन इस एक गलती से वर्षों का कमाया हुआ विश्वास और हमारा व्यक्तित्व मिट्टी में मिल जाएगा। हमने अपना पूरा जीवन इसे संवारने में लगा दिया है। हमारी एक भूल से सब कुछ व्यर्थ हो जाएगा।”*
अंत में, बिल्ली ने दही खाने से खुद को रोक लिया और दृढ़ संकल्प के साथ कहा— “जिस विचार, व्यक्तित्व, समझ और स्वामिभक्ति के लिए मैं जानी जाती हूँ, यदि वही मेरे पास न रहे, तो भला ऐसा जीवन जीने से अच्छा है कि मैं मर जाऊँ। अपनी पहचान खोकर मैं एक साधारण जीवन नहीं जी सकती।” अंततः बिल्ली की स्वामिभक्ति की जीत होती है। यह सब देखकर आचार्य चाणक्य बहुत खुश होते हैं और अपनी शिक्षा के सफल साक्षात्कार पर गर्व महसूस करते हैं।
पता – धनौती मठ , जिला :-सिवान , राज्य:-बिहार